एक अज़ीम शायर ... ''पद्म श्री'' बेकल उत्साही
ऐसा दर्पण मुझे कन्हाई दे ...जिसमे मेरी कमी दिखाई दे ! !
... बीते सप्ताह अनायास और अनियोजित तरीके से देश के महान शाइर पद्म श्री बेकल उत्साही से मुलाकात हुई। दरअसल हुआ यूं कि एक शाम मेरे स्थानीय शाइर दोस्त जनाब कलीम कैसर ने मोबाईल पर सूचित किया कि बेकल उत्साही साहब गोरखपुर में आज किसी काम से आये हुये हैं, कल सुबह वापस बलरामपुर (उत्साही साहब यहीं के रहने वाले है।) चले जायेंगे। मैंने जनाब कलीम कैसर से अपनी इच्छा प्रकट की कि उत्साही साहब से मुलाकात किस तरह सम्भव है ? उनका जबाब आया कि यदि शाम को आप घर पर रहें तो उत्साही साहब को लेकर हम लोग आपके घर पर ही आ जाते हैं। इससे अच्छा प्रस्ताव भला मेरे लिए और क्या हो सकता था। मैंने तुरन्त हामी भर दी। वादे के मुताबिक जनाब कलीम कैसर शाम 7 :00 बजे अपने मित्र डॉ0 अजीज के साथ ‘बेकल उत्साही’ साहब के साथ मेरे घर तशरीफ ले आये। मैंने इसी बीच अपने मित्र और अग्रज बी0आर0 विप्लवी साहब को भी आमंत्रित कर लिया था, सो वे भी समय पर हाजिर हो गये। महफिल जम गई।
...उल्लेखनीय बात यह थी कि इधर कुछ दिनों से पंकज सुबीर, अर्श तथा वीनस केशरी जी के ब्लाग पर सीहोर कवि सम्मेलन और बेकल उत्साही साहब के बारे लेकर लगातार लिखा पढ़ा गया था। बेकल साहब से मुलाकात के वक्त यह भी जेहन में बनी रही........ !
बात चीत का सिलसिला शुरू हुआ......शुरुआत हुई उनके जीवन परिचय से, वे स्वयं बताने लगे कि 1928 में गोण्डा जनपद के रमवांपुर गाँव में उनका जन्म हुआ और उन्हें नाम दिया गया ‘लोदी मुहम्मद सफी खाँ’। पिता ज़मींदार थे और शेरी-नाशिस्तों के शौकीन......घर पर शाइरों का आना जाना रहता था........उन्ही को देख देख के लिखने की ललक बढ़ी ......पहले नात मजलिस का दौर शुरू हुआ फिर गीत नज़्म ग़ज़ल लिखीं .................आरम्भ गीतों से ही हुआ...........बाद में वे बेकल उत्साही के नाम से लोकप्रिय हुये। बहरहाल आज देश का कोई भी मंच हो, चाहे वहाँ पर कवि सम्मेलन हो अथवा मुशायरा उत्साही साहब की उपस्थिति पूरे जोशो खरोस के साथ वहां रहती है।
1976 में बेकल उत्साही साहब को भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया और 1986-92 तक वे राज्य सभा में सांसद मनोनीत हुए। उन्होंने न केवल गज़लें लिखीं बल्कि हिन्दी गीत और दोहे लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का प्रमाण दिया। उन्होंने भाषा और विधा को भावनाओं के आदान-प्रदान में बाधक नहीं बनने दिया और शायद यही स्थिति किसी भी साहित्यकार को उसके कालजयी होने के लिए धरातल प्रदान करती है।
उनके गीत जन भाषा में हैं। खड़ी बोली में लिखे गये ये गीत उर्दू और हिन्दी के बीच एक सन्धि स्थल का निर्माण करते हैं। यदि वे यह कहते है ‘मेरे सामने गज़ल है, मैं गीत लिख रहा हूँ’ तो वे अपनी भावनायें ही प्रकट कर रहे होते हैं। उनका यह कहन बरबस ही दिल में बैठ जाता है कि-नज़्म के अंदाज़ में हुस्ने-गज़ल का बांकपनमिल गई हिन्दी के रस को फ़ारसी की चाशनी दोस्त मेरे गीत का लहजा नई काविष के साथमीर के अहसास में है फ़िक्र तुलसी दास की।
बेकल उत्साही साहब की खूबसूरती यह है कि उनकी जितनी पकड़ उनकी ‘अरूज’ पर है, उससे ज़्यादा पकड़ ‘पिंगल शास्त्र पर है। इसलिए जिस अधिकार से वे गज़ल कहते हैं, उतने ही अधिकार से वे दोहे-गीत भी कहते हैं। उनके काव्य में धर्म, दर्शन , भक्ति, सामाजिक मूल्यों के दर्षन होते हैं। यदि वे यह कहते हैं कि गज़ल का आरम्भ कबीर और तुलसी करते हैं, तो उसे सिद्ध करने के लिए उनके पास अकाट्य प्रमाण भी है। वे कहते हैं कि तुलसी ने रामचरित मानस में जितने शब्दों का प्रयोग किया है, उतना तो दुनिया के किसी भी साहित्यकार ने नहीं किया। कबीर के दर्षन को वे अद्भुत मानते हैं। बहरहाल उनके चन्द दोहे पेश करने का जी चाह रहा है मुलाहिजा फरमाएं -
मन तुलसी का दास हो अवधपुरी हो धाम।
सांस उसके सीता बसे, रोम-रोम में राम।।
मैं खुसरों का वंश हूँ, हूँ अवधी का सन्त।
हिन्दी मिरी बहार है, उर्दू मिरी बसन्त।।
काँटों बीच तो देखिए, खिलता हुआ गुलाब।
पहरा दुख का है लगा, सुख पर बिना हिसाब।।
पैसे की बौछार में, लोग रहे हमदर्द।
बीत गई बरसात जब, आया मौसम सर्द।।
उम्र बढ़ी तो घट गये, सपनों के दिन-रात।
अक्किल बगिया फल गई, सूख गये जज़्बात।।
सूरज शाम की नाव से, उतर गया उस पार।
अम्बर ओढ़ के सो गया, धरती पर संसार।।
‘बेकल’ साहब उत्साह से बताते हैं कि उन्होंने ‘दोहा’ छन्द को तोड़-जोड़ कर एक नया प्रयोग भी किया है जिसे उन्होंने ‘दोहिकू’ का नाम दिया है। वे बताते हैं कि तीन पंक्तियों में लिखे जाने वाले इस दोहिकू में 13-16-13 मात्राओं का प्रयोग किया जाता है। मुझे लगा कि शायद यह दोहा और हायकू को जोड़कर बनाया गया कॉकटेल है। बहरहाल यह प्रयोग भी अद्भुत है- उनके दोहिकू प्रस्तुत है-
‘बेकल’ साहब उत्साह से बताते हैं कि उन्होंने ‘दोहा’ छन्द को तोड़-जोड़ कर एक नया प्रयोग भी किया है जिसे उन्होंने ‘दोहिकू’ का नाम दिया है। वे बताते हैं कि तीन पंक्तियों में लिखे जाने वाले इस दोहिकू में 13-16-13 मात्राओं का प्रयोग किया जाता है। मुझे लगा कि शायद यह दोहा और हायकू को जोड़कर बनाया गया कॉकटेल है। बहरहाल यह प्रयोग भी अद्भुत है- उनके दोहिकू प्रस्तुत है-
गोरी तेरे गाँव में।
पीपल बरगद टहल रहे हैं।
मौसम बाँधे पाँव में।।
और
छत पर बैठी देर से
गोरी चोटी गूँथ रही है
गेंदा और कनेर से
वे कृष्ण को बहुत प्यार करते हैं, कहते हैं, कि कृष्ण बहुत नटखट हैं और वे सबको छेड़ते रहते हैं। एक रचनाकार के रूप में मैंने भी उनसे बहुत छेड़-छाड़ की है। उसी छेड़-छाड़ का एक नमूना यह है-
ऐसा दर्पन मुझे कन्हाई दे।
जिसमें मेरी कमी दिखाई दे।।
गति मिरी साँसों की ठहर जाए।
जब तिरी बाँसुरी सुनाई दे।।
श्याम मैं दूर रहके हूँ बीमार।
पास आकर मुझे दवाई दे।।
वस्त्र वापस दे साधनाओं के।
आस्था को न जग हँसाई दे।।
दे कलम अपनी बाँसुरी जैसी।
अपनी रंगत की रोशनाई दे।।
तूने माखन चुराये हैं छलिये।
दिल चुराने की मत सफ़ाई दे।।
दोस्ती का उधार है तुझ पर।
हक़ सुदामा का पाई-पाई दे।।
और अन्त में भारतीय परम्परा के इस महान वाहक कवि गज़लकार बेकल उत्साही की एक गज़ल पेशे खिदमत है जो भारतीय आम आदमी की स्थिति-परिस्थिति को किस खूबसूरती के साथ बयान करती है-
अब तो गेहूँ न धान बोते हैं।
अपनी किस्मत किसान बोते हैं।।
गाँव की खेतियाँ उजाड़ के हम,
शहर जाकर मकान बोते हैं।।
धूप ही धूप जिनकी खेती थी,
अब वही सायाबान बोते हैं।।
कोंपलें दुश्मनी की सब्ज़ हुई,
दोस्ती मेह्रबान बोते हैं।।
तीर तरकाश से जब नहीं उगते,
लोग ज़द पर कमान बोते हैं।।
अब उजालों की चोटियों पे न जा,
तेरे साये ढलान बोते हैं।।
लोग चुनते हैं गीत के अल्फ़ाज़,
हम ग़ज़ल की ज़बान बोते हैं।।
फ़स्ल तहसील काट लेते हैं,
हम मुसलसल लगान बोते हैं।।
रूत के आँसू ज़मीन पर बेकल।
इन दिनों आसमान बोते हैं।।
और...........
ये दुनिया तुझसे मिलने का वसीला काट जाती है
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है !!
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है !!
पहुँच जाती हैं दुश्मन तक हमारी ख़ुफ़िया बातें भी
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है !!
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है !!
अजब है आजकल की दोस्ती भीए दोस्ती ऐसी
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है !!
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है !!
तेरी वादी से हर इक साल बर्फ़ीली हवा आकर
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है!!
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है!!
किसी कुटिया को जब बेकल महल का रूप देता हूँ
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है !!
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है !!
***** PK
3 comments:
बेकल उत्साही जी से आपकी मुलाक़ात प्रत्यक्ष हुई है,
किन्तु आपकी पोस्ट पढ़कर ऐसा आभास हो रहा है की आप अकेले ही उनसे नहीं मिले बल्कि हम भी उनसे आपके साथ ही मिले !
जानदार पोस्ट के लिए धन्यवाद ................
भैया बेकल उत्साही जी जैसी नायाब शख्शियत के बारे में जानने का हमें अवसर दिया
धन्यवाद ............
विनम्र श्रद्धांजलि...💐
सर बेकल जी की मैंने एक कविता सुनी थी, जिसमें उन्होंने अंतराष्ट्रीय सन्दर्भ में काफी बात कही थी....कविता का भाव अभी भी स्मरण में है....लेकिन कविता की मात्र अंतिम पंक्ति याद है "बेकल जी अब तुम ही बताओ मेरा हिंदुस्तान कहाँ हैं"
मित्र यदि आपके पास ही तो कृपया उपलब्ध करा दीजिए..आपका एहसान होगा, यह मेरी फेवरिट कविता है।
संपर्क:-8052792455(व्हाट्सअप और फेसबुक दोनों)
पुनः विनम्र निवेदन...
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