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Wednesday, May 12, 2010

वे "चच्चू" नहीं "चक्षु" हैं .....!


"सिंह सदन" की बहुत सी शख्सियतों से यूं तो इस ब्लाग पर परिचय कराया जा चुका है, लेकिन हर बार जिस भी शख्सियत का परिचय कराया जाता है वह अपने आप में अद्भुत होता है।

परिचय की इसी श्रृंखला में आज जिस शख्सियत को यहां लाया जा रहा है, वे हैं वाक-तर्क शक्ति के धनी, धार्मिक-आध्यात्मिक विषयों पर अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से सतत् वैज्ञानिक और वैचारिक अन्वेषण करने वाले ज्ञानी पुरूष, सस्ती दवाओं से अपने मरीजों का गारण्टी शुदा इलाज करने वाले वैद्य श्री हरिकृष्ण..........!


कहा जाता है कि वे बचपन से ही मेधावी प्रकृति के जिज्ञासु व्यक्तित्व के स्वामी थे। बचपन से ही उन्हें धार्मिक और धार्मिकेत्तर विषयों पर अधिकाधिक जानकारी करने का जुनून था और इस जुनून के चलते आरम्भ से ही वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करते रहे। किसी भी विषय पर अध्ययन करना तथा अध्यनोपरान्त उस ज्ञान को लोगों के साथ बैठकर बांटने में उनकी विशेष रूचि रही है और यही कारण है कि कम उम्र से ही वे आस-पास के गाँव में एक ऐसे व्यक्ति के रूप में लोकप्रिय हुए जिसे तमाम सांसारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक विषयों पर विशेष ज्ञान था।


कई मायनों में वे क्रान्तिकारी व्यक्ति भी सिद्ध हुए। 20-25 वर्ष पूर्व जब गाँव में चिकित्सकों की घोर कमी थी, तो श्री हरिकृष्ण ने स्वप्रेरणा से शल्य और हेनीमैन जैसे प्रकाण्ड लेखकों के चिकित्सा शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया और बिना किसी चिकित्सकीय विद्यालय में पढ़े हुए एक रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनर के रूप में अपना कार्य आरम्भ किया। चूँकि उनका उद्देश्य चिकित्सा के माध्यम से पैसे कमाना नहीं था, ऐसे में उन्हें आस-पास के गाँवों में काफी प्रसिद्धि मिली और यह बात उभरकर आयी कि वैद्य हरिकृष्ण की दवाओं में कोई जादू है, जो मरीजों को तुरन्त स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है। उनका यह कदम क्रान्तिकारी था।

हस्तरेखा विशेषज्ञ होना भी उनकी स्वाध्याय और स्वप्रेरणा का ही एक जबरदस्त उदाहरण है, उन्होंने एक क्रान्तिकारी कदम और उठाया वह था गाँव में श्री रामलीला का मंचन। 20-25 वर्ष पूर्व ग्राम मेदेपुर तथा उसके आस-पास के क्षेत्र में कही भी श्री रामलीला का मंचन नही होता था। चूँकि वैद्य जी की रूचि श्री रामचरित मानस में बहुत ज्यादा थी, तो ऐसे में वैद्य जी ने यह निश्चय किया कि गाँव में श्री रामलीला का मंचन किया जाय और इसके लिए उन्होंने स्थानीय नवयुवकों का एक दल बनाकर मंचन का आरम्भ किया। यह मंचन विगत 20 वर्षो से जारी है। आज इस मंचन की लोकप्रियता का आलम यह है कि कार्तिक माह में जब इस श्री रामलीला का मंचन होता है, तो गाँव के कई ऐसे निवासी जो व्यापार और व्यवसाय के सिलसिले में दूर-दराज जाकर नौकरी कर रहे हैं वे भी अवकाश पर उन दिनों का आकर रामलीला का मंचन का आनन्द उठाते हैं।


वैद्य श्री हरिकृष्ण प्रारम्भ से ही स्वछन्द प्रकृति के इन्सान रहे हैं। वे शायद ही कभी किसी परिधि में बंधे हों। फक्कड़ी स्वभाव के वैद्य जी की एक विशेषता यह भी है कि वे धार्मिक, ऐतिहासिक, साहित्यिक तथा राजनैतिक व्यक्तित्वों और घटनाओं की पड़ताल बड़े गहरे से करते हैं। श्री राम, श्री कृष्ण, महात्मा गाँधी से लेकर वर्तमान राजनीति के महत्वपूर्ण व्यक्तियों के विषय में वे एक चलते-फिरते ‘‘इन्साइक्लोपीडिया’’ की तरह हैं। उनके विचारों से यदि कोई व्यक्ति असहमत होता है तो वैद्य जी को यह बड़ा नागवार गुजरता है। यह अलग बात है कि यदि उन्हें तर्क पूर्ण तरीके से समझाया जाय तो वैद्य जी सहमत भी बड़ी आसानी से हो जाते है।

वैद्य जी उम्र 55 वर्ष से अधिक की ही होगी किन्तु उनका दिल अभी भी ‘‘...........दिल तो अभी बच्चा है जी’’ की तर्ज पर ही काम करता है। छोटी-छोटी बातों पर नाराज हो जाना और जल्दबाजी में किसी से कुछ भी कह जाना उनकी एक विशेषता है, किन्तु इससे भी बड़ी विशेषता यह है कि वे तुरन्त ही अपनी गलती भी स्वीकार कर लेते हैं।

हमारी अम्मा बताती हैं कि वैद्य जी को युवावस्था में हृदय सम्बन्धी बीमारी हो गयी थी, जिसके कारण दिल्ली, ऐम्स में जाकर उनका आपरेशन कराया गया था, तभी से उनका ब्लड प्रेसर थोड़ा बढ़ा हुआ रहता है। उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि उन्हें सरकारी नौकरी गुलामी का प्रतीक लगती थी, इसलिए उन्होंने कोई सरकारी नौकरी नहीं की। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड में भी उनकी नौकरी लगाने की बात चली तो वे यह कहकर मुकर गये कि ‘‘मुझसे 1० से 5 बजे तक तक एक कुर्सी पर नहीं बैठा जायेगा।’’मुझे याद है कि जब मैं स्नातक में था तो वैद्य जी से बहुत से विषयों पर विचार विमर्श किया करता था।


मुझे याद है कि "हरिवंश राय बच्चन" की प्रसिद्ध कृति "मधुशाला" के छन्दों को उनके स्वर में मैंने और पंकज ने रिकार्ड किया था और उन्हें हम लोग बडे़ चाव से सुना करते थे। आई0ए0एस0 में चयनित हाने के बाद जब मैं गाँव गया तो उनके द्वारा दिया गया ‘बुके’ मुझे आज भी याद है।


वैद्य जी को पढ़ने का शौक किस कदर है। यह इस बात से समझा जा सकता है कि 10-12 वर्ष पूर्व गाँव में जब समाचार-पत्र नियमित तौर पर नहीं पहुँच पाते थे तो वैद्य जी रोजाना 15 किमी0 साईकिल चलाकर मैनपुरी शहर आते थे और अखबार तथा पत्रिकाएं वांचने के बाद गाँव वापस हो जाते थे। अध्ययन के प्रति उनका लगाव इस हद तक है कि वे ‘क्लासिकल लिटरेचर’ से लेकर सड़क के किनारे बिकने वाले ‘सस्ता साहित्य’ तक के गम्भीर पाठक हैं। क्रिश्चियन इन्टर कालेज में पढ़ाई के दौरान वे मेधावी छात्र रहे।वैद्य जी के बारे में यूं तो लिखने को बहुत कुछ है मगर कहते है कि ‘हर एक किस्से का एक इख्तिमाम होता है’ सो यह प्रस्तुति उनकी विद्वता, क्रान्तिकारी व्यक्त्वि और तार्किक होने को समर्पित करता हूँ कि वे अपनी विद्वता का अलख यूं ही हमेशा-हमेशा जगाते रहे। एक महत्वपूर्ण बात और वे किसी के मामा हैं तो किसी के पिता जी......तो किसी के चाचा.......मगर सब उन्हें प्यार-सम्मान से "चच्चू" कहते हैं...! आज यकीं होता है कि वे "चच्चू" नहीं सिंह सदन "चक्षु" हैं.....!

2 comments:

Pushpendra Singh "Pushp" said...

भैया
आपने वाकई कमाल का लिखा
चच्चू महान इन्सान है उनके विचार लीग
से हट कर है और यही बात उन्हें ज्ञानी पुरुष बानाती है
में उन्हें प्रणाम करता हूँ |
और अपको शत शत नमन करता हूँ |

SINGHSADAN said...

चच्चू के बारे में जो भी लिखा है सही लिखा है.....
PK