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Wednesday, August 21, 2013

"हरीकृष्ण"...... बल्कि स्व0 हरीकृष्ण.........।


....... हमें छोड़ के ये सब क्यो छोड़ गए हो....?

अभी तक दिमाग से 16/1 7  अगस्त की वह रात निकल नहीं रही जब अचानक रात करीब 01 बजे मेरा फोन बजा . फोन उठाया, दूसरी तरफ मम्मी थीं........बदहवासी में बोली - "छोटे मामा की तबीयत खराब है......सांस लेने  में तकलीफ हो रही है, हम लोग ईसन नदी के पुल के पास हैं, प्रमोद डॉक्टर की तलाश में गए हैं......." उन्होंने ये साड़ी बात रुंधे गले से एक ही सांस में कह डालीं .मैं समझ गया कि वाकई हाल मुश्किल हैं . मैंने मम्मी से कहा ‘‘मेरी बात कराओं।‘‘ मम्मी ने फोन मामा को दिया। मामा बोले - ‘‘ बेटा बात करने में तकलीफ हो रही है‘‘। मैं उनकी आवाज से समझ गया कि उनकी हालत नाजुक है। मैं रात में ही निकल पड़ा। फर्रूखाबाद से मैनपुरी का रास्ता लगभग एक-सवा घण्टे का है.....रास्ते भर मैं चीजें मैनेज करता रहा। कभी सी0एम0ओ0 को फोन लगाकर उससे तत्काल इलाज करने की दरख्वास्त की तो कभी जोनी को जगाकर व्यवस्था करने को कहा.....मगर ये सब उपाय दस मिनट के अन्तराल में ही बेमानी साबित हो गए। 

‘‘मामा नहीं रहे .....‘‘ यह वाक्य जब मम्मी ने बोला तो लगा कि सिंह सदन के हिस्से का एक दैरीव्यमान सितारा बुझ गया।

हरीकृष्ण ... अब स्व0 हरीकृष्ण हो गए थे। वैद्य जी, चच्चू, डाइरेक्टर साहब, डॉ  साहब, मामा और फिर छोटे.....जाने कितने सम्बोधन उनके खाते में थे। हम सब अपनी सहूलियत से उन्हें सम्बोधित करते थे। जब से हम लोगों ने होश संभाला तब से छोटे मामा हमारे लिये एक बौद्धिक प्रकाश पुंज की तरह थे। मेदेपुर जैसे नितान्त छोटे से गांव में पहले शख्स थे जिसने ‘सूचना और ज्ञान‘ की शक्ति को समझा। जाने कहां-कहां से सोवियत संघ, नवनीत, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान जैसी नामचीन पत्रिकाओं से लेकर बाजारू साहित्य का एक बड़ा संकलन चैपाल में रहता था। पौराणिक साहित्य का संकलन तो हमारे घर में पूर्व से ही चला आ रहा था। रेडियो, घड़ी, टेप रिकार्डर जैसे तत्कालीन गैजेट भी उनके पास रहा करते थे। यह उनकी जिजीविषा और उत्कंठा का ही परिणाम था कि वे इतिहस, स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य, खेल, राजनीति, कूटनीति, संगीत, कला जैसे विविध विषयों पर भरपूर जानकारी रखते और हमारी पीढ़ी को अवगत कराते । मुझे आज भी आश्चर्य होता था कि कैसे उन्होंने आयुर्वेद और ऐलोपैथ के क्षेत्र में स्वाध्याय और अनुभव से अपना लोहा मनवाया। कोई मान्यता प्राप्त डिग्री उनके खाते में नहीं थी किन्तु उनके इलाज के मुरीद आस पास के गांवों में सहजता से मिल जाते हैं। छोटे मामा ने गांव में रामायण के मंचन की परम्परा डाली। छन्दबद्ध संवाद के माध्यम से लगभग पन्द्रह दिन चलने वाली इस रामायण के मंचन ने उन्हें एक निर्देशक  के रूप में स्थापित किया, वे ‘डाइरेक्टर सा'ब ‘ के नाम से प्रसिद्ध हो गए। इसके अलावा सूचनाएं/जानकारी एकत्र करने का जुनून और वाद-विवाद-बहस की परम्परा को जन्म देने के लिए उन्हें श्रेय दिया जाना चाहिए।

1995 के आस-पास बच्चन की मधुशाला के छन्दों की रिकार्डिंग के लिए मैंने और पंकज ने उनकी आवाज में कई छंद रिकार्ड किए। अब वह रिकार्ड तो गुम हो गया है किन्तु उनकी प्रस्तुति का तरीका आज तक मैं विस्तृत नहीं कर सका।

बहुत कुछ लिखने को है... मगर सब कुछ थम सा गया है, उनके जाने के बाद। अन्याय हुआ है हमारे साथ। कुछ दिन उन्हें और ठहरना चाहिए था। मगर नियति से न कोई लड़ सका है न लड़ पाना संभव है।

बहुत कुछ छोड़ गए हो मामा आप हम सब के लिए ...लेकिन हमें छोड़ के ये सब क्यो छोड़ गए हो....?

***** PK

1 comment:

pankaj k. singh said...

mama will be always relevent n all time truely guide of singh sadan