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Monday, July 23, 2012

राग दरबार vol-13


पुरवा आवत देखि के अकुलावें जे खेत |
जैसे रेगिस्तान में पवन उड़ावे रेत ||

पछुआ है मनभावनी मन मीठा कर जाय |
फसलें सब लहला उठें शीतलता पहुंचाय ||

चढ बसंत की बेल पर फूल सभी खिल जाय |
ज्यों त्योहारी मिलन से दिल से दिल मिल जाय ||

ग्रीष्म ऋतु मायूस सी हाथ पैर झुलसाय |
झिलमिल करती धूप में चित्त नहीं टिक पाय ||

रिमझिम बरसे मेघ रस धरती को नहलाय |
स्वाति नक्षत्र की बूंद पी पपीहा प्यास बुझाय ||

धनवानों की शरद ऋतु निर्धन की है ग्रीष्म |
करते सब है प्रतिज्ञा बना कोई भीष्म ||

ऋतुओं में ऋतुराज है निर्मल ऋतु बसंत |
मानुष मौज मानत है ध्यान लगावत संत ||


                                                पुष्पेन्द्र “पुष्प”

2 comments:

PANKAJ K. SINGH said...

adbhut ,,ati sundar
aashish .. god bless u

SINGHSADAN said...

रिमझिम बरसे मेघ रस धरती को नहलाय |
स्वाति नक्षत्र की बूंद पी पपीहा प्यास बुझाय ||

मौसमों को लेकर लिखे गए ये दोहे इसलिए काबिले तारीफ़ हैं क्योंकि इनमे मौलिकता है न केवल लेखन की बल्कि सोच की भी. यह नयापन अच्छा संकेत है तुम्हारे लेखन के भविष्य का. तारीफ़ इसलिए नहीं करूंगा कि कहीं तुम बिगड़ न जाओ/////

PK