कुछ लोगों से ‘सिंह सदन‘ का अत्यन्त भावनात्मक और आत्मीय रिश्ता है। ये वे लोग हैं जिनका जन्म भले ही ‘सिंह सदन‘ में न हुआ हो किन्तु उनका जुडाव इस घर से ऐसा रहा है कि कोई भी आयोजन हो या कोई भी त्यौहार, इनके बिना ‘सिंह सदन‘ अधूरा सा लगता है। इस फेहरिस्त में यूँ तो कई नाम हैं किन्तु इस श्रंखला में आज की शख्सियत है.......संजीव गोयल, जिन्हें हम प्यार से संजू कहकर बुलाते हैं।
अप्रैल 1991........ यही वो महीना था जब संजू से पहली बार मुलाकात हुई। उन दिनों राजा का बाग में शर्मा जी के मकान में हम लोग किराये के मकान में रहते थे........उस मकान में ही संजू का परिवार भी आकर रहने लगा। चूंकि संजू और मैं एक ही स्कूल के छात्र थे, दोनों ही बारहवीं कक्षा में पढते भी थे सो मित्रता होना स्वाभाविक थी.....मित्रता हुई और बड़ी तेजी से मित्रता के इस वृक्ष पर विश्वास-आस्था का अंकुरण-पल्लवन होना प्रारम्भ हो गया।
बाहरवीं के बाद मैं आगरा में सेण्ट जॉस कॉलेज से बी0एस0सी0 करने चला गया, संजू ने भी शिकोहाबाद के नारायण डिग्री कॉलेज में एडमीशन ले लिया। मैं जब भी आगरा से मैनपुरी घर आता तो शिकोहाबाद से संजू को लेते हुये आता और जब आगरा जाता था तो संजू को इधर से साथ लेते हुये जाता.....। जब मुलाकातें लगातार न हो पाती तो खतो-किताबत चलती रहती। यह खतो-किताबत तब तक चलती रही जब तक कि मोबाइल का दौर शुरू नहीं हुआ.....।
बहरहाल पुनः संजू के बारे में कुछ संक्षिप्त सा हवाला देना आवश्यक समझता हूँ । संजू के पिता श्री रामेश्वर दयाल विकास खण्ड में सहायक विकास अधिकारी पंचायत के पद से सेवानिवृत्त हुये थे। संजू के पिता का व्यक्तित्व भी अत्यन्त सरल और विनम्र है....सो संजू के व्यक्तित्व में इसकी छाया साफ-साफ देखी जा सकती है। चार भाईयों में तीसरे नंबर पर आने वाले संजू ने 1991 में इण्टर तथा 1995 में स्नातक किया.....तदोपरान्त परास्नातक करने के बाद लेखपाल के पद पर चयनित हुए। लखनऊ जनपद में लेखपाल के पद पर रहते हुये भी बेहतर भविष्य की तैयारी में लगे रहे....इसका फल भी मिला। सम्प्रति वे लोक सेवा आयोग उ0प्र0 में समीक्षा अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। संजू की जीवन संगिनी के रूप में पूजा का भी अतुलनीय योगदान रहा है। संजू के बारे में जब मैं सोचता हूँ तो हैरान होता हूँ । इक्कीसवीं सदी में भी यह शख्स इतना सीधा व सरल है, कि विश्वास ही नहीं होता है। संजू का जीवन दर्शन इतना सीधा-सरल है कि जरा सा तनाव-उपेक्षा भी संजू को परेशान कर देता है।
मुझे वे दिन याद है जब संजू को नौकरी की तलाश थी और संजू यहॉ-वहॉ नौकरियों की तलाश में परीक्षा देने जाया करते थे। चूंकि मेरी नौकरी 1997 में लग गयी चुकी थी, मैं संजू को तयारी करने को कहता तो ये बातें संजू को समझ में नहीं आती थी। वे तो महज़ एक अध्यापक बनने का स्वप्न पाले हुए थे, इस स्वप्न से बहार आ पाना उनके लिए बहुत मुश्किल था....मैनपुरी से उनका जुड़ाव उन्हें मैनपुरी से चिपके रहने के लिए प्रेरित करता था। 2006 में मैं जब सहायक निदेशक खेल था तो डॉट-डपट कर मैने संजू को लखनऊ में ही रूककर तैयारी करने को कहा.....। यह वह वक्त था जब संजू ‘अनिर्णय‘ की स्थिति में आ गए। उन्हें मैनपुरी छोडना बहुतकष्ट कर लग रहा था, बहरहाल मेरे दवाब ने उन्हें मैनपुरी छोडने पर विवश किया। अनिच्छा से ही सही मगर संजू ने लखनऊ में रहना आरम्भ किया...... इसका सुपरिणाम भी देखने को मिला। एक वर्ष के ही अन्दर ‘लेखपाल‘ के पद पर चयनित हुए, उसी वर्ष उनका विवाह ‘पूजा‘ से हुआ। अगले वर्ष ही वे समीक्षा अधिकारी के पद पर चयनित हो गए।
बहरहाल संजू की इस सफलता को मैं एक ऐसे इन्सान की सफलता के रूप में देखता हूँ जिसका बचपन ‘सामान्य‘ तरीके से बीता है, युवावस्था एक ‘अध्यापक‘ के सपने के रूप में व्यतीत हुई हो। मेरे विश्वसनीयों की सूची में संजू का नाम काफी ऊपर आता है। संजू और मेरे संबंध यद्यपि मित्र के रूप में शुरू हुए थे मगर संजू अब एक भाई की तरह ही है..... संजू की उम्र मुझसे कुछ महीने-साल ज्यादा होगी किन्तु मैंने हमेशा से संजू को अपने छोटे भाईयों की तरह ही प्यार-स्नेह दिया है। संजू के हरेक सुख-दुख का मैं भागीदार रहा हूँ ........। मुझे संजू के संघर्षों के वे दिन याद हैं जब संजू सुबह से लेकर देर रात्रि तक ट्यूशन पढाकर अपना जीवन यापन कर रहे थे। भोर से वे बच्चों को गणित-विज्ञान का ट्यूशन देते और रात्रि तक यह क्रम निर्बाध रूप से चलता रहता । सिंह सदन के कई बच्चों को उन्होने गणित-विज्ञान पढाया है। यह क्रम लगभग दस-बारह साल चला। यह क्रम तभी समाप्त हुआ जब 2006 में मैंने संजू को लखनऊ बुला लिया।लखनऊ अवस्थान के बाद बहुत तेजी से उनके जीवन में परिवर्तन हुए...... कंप्यूटर सहायक के रूप में प्राइवेट नौकरी के एहसास से होते हुए लेखपाल और उसके बाद शादी- बच्चा और तदोपरांत अब समीक्षा अधिकारी।
संजू में बहुत सी खूबियाँ है......अच्छे आदमी होने के साथ साथ वे अच्छे पुत्र- भाई -मित्र-पति-बाप-इन्सान भी हैं.उनकी आवाज़ इतनी मधुर है की मैं जब भी खली होता तो संजू को बुला कर आधे-एक घंटे गाने सुनता.....! इन खूबियों के बावजूद कुछ इंसानी कमियां भी उनके व्यक्तित्व में हैं...........जैसे संजू की ‘लापरवाही‘ उसके व्यक्तित्व की सबसे बडी कमी है। कठोर शारीरिक श्रम न कर पाना और परेशानी में बहुत जल्दी ‘हिम्मत ‘ खो बैठना उनके व्यक्तित्व के दुर्बल पक्ष हैं किन्तु ये दुर्बल पक्ष उनकी इंसानियत-विश्वासनीयता-सरलता-मधुरता के सामने फीके पड जाते हैं।
लगभग बीस साल की इस मित्रता को जब पीछे मुड के देखता हूँ तो अहसास होता है कि इस दौडती-भागती स्वार्थी दुनिया में कोई ऐसा शख्स है जो इन सबसे ऊपर उठा हुआ है और वो मेरा ही नहीं पूरे ‘सिंह सदन‘ का प्यारा है.......संजू।
3 comments:
बहुत प्यारा लिखा प्यारे संजू भैय्या पर ..............
प्यार स्नेह आदर-भाव नैतिकता उनमे कूट -कूट कर भरा है........
वे खूब हँसते भी हैं ................
मैंने ,जोनी भैय्या,सागर भैय्या ने और संजू भैय्या ने ढोल फिल्म साथ देखी थी.............
जिसको देख कर हम लोगों की हँसते -हँसते हालत खराब हो गयी थी ..............
वैसे वो बहुत अच्छा गाते हैं येसहीहै ..............
अगर मौका लगे तो उनसे दबंग का ताकते रहते गाना जरूर सुने .............
श्याम कान्त
bahut sundar dosti ka hawala diya apne
badhai.............
MERA MALLAB HAI KYA SHANDAAR LIKHA HAI BHAIYA...MAJA AAGYA.
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