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Wednesday, July 28, 2010

सिंह सदन की किचिन किंग ..................

यूँ तो उनके बारे में कई सारे पोस्ट लिखे जा चुके है लेकिन में उनका तारुफ़ किचन किंग के रूप में कराना चाहूँगा वे साक्षत "माँ अन्नपूर्णा है
जी हाँ में बात कर रहा हूँ अपनी बुआ जी व सिंह सदन की मुखिया ब्लॉग अध्यक्ष शीला देवी की वे अतुलनीय है साध्वी है सत्कर्मी है ये उन्ही की मेहनत और इश्वर की कृपा है
की सिंह सदन आज कहाँ से कहाँ पहुँच गया है सिंह सदन का हर शख्श कोई न कोई प्रतिभा रखता है इन सब की प्रतिभा के पीछे किसी न किसी तरह हमारी बुआ जी का ही हाथ है
वे एक संघर्ष शील महिला है वे इस सिंह सदन की नाव को कहाँ से खे कर लायीं है वे ही समझ सकती है इस नाव ने पता नहीं कितने ही तूफानों का सामना किया हो लेकिन कभी
डरी नहीं मनो उनहोंने तय कर लिया था की वे इस सिंह सदन को इस मुकाम पर ला कर रहेंगीं ...............पर में तो उन्हें किचन किग बताना चाह रहा था पर क्या करूँ उनके बारे में तो कुछ भी लिखा जा सकता है खैर में पॉइंट पर आता हूँ बुआ जी जितनी अच्छी इन्सान है उतनी ही अच्छी गृहणी भी है वे जब किचन में घुसतीं है तो मानों सारी चीजें स्वेंम व्यवस्थित हो गयीं हो और खान इतनी जल्दी तैयार हो जाता है की पूछो मत.............. मुझे आज भी याद है जब हम लोग छोटे थे तो जोनी के बहुत सारे दोस्त घर पर आते थे बुआ जी उन को भी बड़े ही प्यार से खान खिलाती थीं जब मूली और आलू के पराठे बनते तो सभी को इंतजार रहता था और जोनी के दोस्त पूछते रहते थे कि कब दावत है जिस दिन मूली के पराठे बनते उस दिन सभी एकत्र होते और सभी बड़े ही चाव के साथ खाते बुआ जी बनाते बनाते थक जाती पर कभी उफ़ नहीं करतीं .......................दरसल उनके बनाये पराठे इतने स्वादिष्ट होते कि कोई एक बार खा कर वो स्वाद भूल नहीं पता और खिचा चला आता बुआ जी कुछ भी बनादे उसमे बेहद स्वाद होता है..............मुझे तोरई की शब्जी बिलकुल पसंद नहीं थी जब से उनके हाथ की तोरई खाई है....................... स्वाद नहीं भुला और आज तक खा रहा हूँ ..............जोनी जोकि हमारे घर में सबसे ज्यादा स्वादिष्ट खाना खाने के शौक़ीन है वे अच्छे से अछे खाने में कमी निकाल सकते है वे भी बुआ जी के खाने के दीवाने है उनका बनाया कटहल उन्हें बेहद पसंद है.......................... में तो उनके खाने का जबरदस्त फेन हूँ
बुआ जी के खाने में तो स्वाद है ही पर उनके हाथों में जादू भी है उनके हाथ का खाना जिसने भी खा लिया आज वो अच्छे ओहदे पर पहुँच गया ये सभी मानते है उनके बनाये खाने को लोग अवश्य ही खाते है ........................उस खाने में प्यार और अपनत्व कि अनुभूति होती है
परम आदरनीय बड़े भैया भी बुआ जी(मम्मी) के खाने के जबरदस्त फेन है
वे पूरे सिंह सदन की किचन

(पिंटू)

Monday, July 26, 2010

अपना ब्लॉग “चिटठा चर्चा” में........बधाई !

बधाई हो.......अपना ब्लॉग “चिटठा चर्चा” में भी शामिल हो गया....कल जब यह खबर किसी ने दी तो बहुत ही अच्छा लगा। चिटठा चर्चा में अमूमन उन ब्लॉग-पोस्ट पर चर्चा की जाती है जो उनकी नज़र में किसी मायने में महत्त्वपूर्ण होते हैं.....! रवि रतलामी जी ने चिटठा चर्चा पर चर्चा का शीर्षक दिया है "यही तो है असली ब्लॉगिंग" । यह ब्लॉग Sunday, July 04, 2010 को प्रकाशित हुआ है .
रतलामी जी ने अपने ब्लॉग की तारीफ करते हुए लिखा है कि "असली ब्लॉगिंग के अपनी तरह के सैकड़ों, वाजिब उदाहरण हो सकते हैं. एक उदाहरण आपके सामने पेश है. सिंह सदन नाम का एक घर है. उस घर के सदस्यों का एक ब्लॉग है – सिंह सदन – ए हट अंडर द स्काई. इस ब्लॉग की पहली पोस्ट इब्तिदा 10 अप्रैल 2010 को प्रकाशित की गई थी. इसके बाद सबने अपना जिम्मा ले लिया और नियमित पोस्टों का सिलसिला शुरू हो गया. फिर तो घर-परिवार के व्यक्तियों पर केंद्रित बेहद मर्मस्पर्शी पोस्टें आने लगीं. कुछ पाठकों की नजर में ये बेहद व्यक्तिगत और निजी हो सकती हैं, मगर, फिर, यही तो है असली ब्लॉगिंग. दादी माँ पर एक पोस्ट है – वेल डन अम्मा. सिंह सदन में और भी बहुत कुछ है. स्टाइलिश फैमिली से लेकर सास-बहू तक. 30 जून 2010 को सिंह सदन का मासिक बुलेटिन भी प्रकाशित हुआ. इस ब्लॉगर परिवार की खुशियों में आप भी शामिल होना चाहते हैं? तो फिर देर किस बात की? सिंह सदन – ए हट अंडर द स्काई के मेहमान बन जाइए!"

इस प्रकार मुझे बेहद प्रशन्नता है कि हमारा ब्लॉग अपने अद्भुत प्रयास के लिए जाना जा रहा है. इस ब्लॉग के बावत कई ब्लोगर्स दोस्तों ने मुझसे उलाहना भी दिया कि " आपने जो घरेलू ब्लॉग बनाया है वो एक दम नया स्वरुप है ब्लोगिंग का, काश कि हम भी ऐसा कर पाते ......!"
ब्लोगर कंचन सिंह चौहान ने तो यहाँ तक कहा कि " पवन जी यह आइडिया मेरे दिमाग काश आपसे पहले आया होता....!"
बहरहाल मेरी तो कोशिश यही थी कि हमारा ब्लॉग कम से कम एक्सपोज हो.....इसके बावजूद अगर समीक्षकों ने इसे सराहा है तो इसमें "सिंह सदन" के ब्लॉग पर हरेक लिखने- पढ़ने वाले सदस्य कि भूमिका है.....! इस चर्चा के बाद 20 पाठकों कि टिप्पणियां भी प्रेरणास्पद हैं.....! एक बार पुनश्च आप सबको बधाई ..........!
(http://chitthacharcha.blogspot.com) 20 टिप्पणियाँ
*****PK

Sunday, July 25, 2010

RETRO PARADE - 1987



खिलते हैं गुल यहाँ ... !

वर्ष 1987 का प्रारंभ - अचलगंज (उन्नाव)
वर्ष 1987 का समापन - अचलगंज (उन्नाव)

... वर्ष १९८७ भी हमारे बाल्यकाल का एक और सुन्दर वर्ष कहा जा सकता है ! इस वर्ष कुछ ऐसी उपलब्धियां भी भैया और मुझे मिली ....जो उस समय की परिस्थितियों में बहुत ख़ास थीं ...और कदाचित हम दोनों के लिए आज भी स्मरणीय हैं !

इस वर्ष ने कुछ बड़े महत्त्व के मील के पत्थर स्थापित कर दिए .... जिन से कालांतर में सिंह सदन का भविष्य निर्धारित होने में सहायता मिली ! इस वर्ष भैया ने क्लास ८ में ''डिस्ट्रिक्ट बोर्ड'' की परीक्षाओं में जिले में मेरिट में ''टॉप'' कर दिया ....और हमारा घर सभी गुरुओं और छात्रों के लिए सम्मान और स्नेह का केंद्र बन गया !....मैं भी भला कहाँ पीछे रहने वाला था ...क्लास ५ में मैंने भी जिले की मेरिट में टॉप कर पहली बार कुछ सम्मानजनक उपलब्धि हासिल की !

.....इस परीक्षा की एक दिलचस्प कथा है ...मैं एक पेपर में समय से पूर्व ही सारे प्रश्न हल कर बैठा था.... तभी चेकिंग करने अधिकारीयों की टीम आ गयी ! मुझे खाली बैठा देख अधिकारीयों ने मेरी कोपी देखी... उन्हें शक हुआ कि इतनी जल्दी इस छात्र ने कैसे पेपर हल कर लिया ...मुझे दोबारा कोपी दी गयी ...और अधिकारीयों ने सामने बैठाकर मुझसे दोबारा नया पेपर हल कराया ...और संतुष्ट होकर मुझे शाबाशी दी ! इससे मेरे स्कूल के शिक्षक मुझसे बेहद प्रसन्न हुए !

१९८७ के नए सीज़न में एडमिशन के समय हमारे स्कूल ने अपने विज्ञापनों में हम दोनों भाइयों का उल्लेख किया तो अपने शर्मीले स्वभाव के कारण मुझे यह देखकर बड़ी शर्म महसूस होती थी ! एक बार हमारे शिक्षक श्री धरमदास जी ने भरी क्लास के बीच में मुझे अपने पुत्र को अंग्रेजी पढ़ाने को कहा ....तो जैसे मैं शर्म से गढ़ ही गया था ! इससे मैं काफी डर गया ...और मैंने अपने गुरु श्री राम सजीवन जी से यह बात कही... तो उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि उन्होंने( श्री धरमदास जी ) मेरा मज़ाक नहीं उड़ाया है ...वरन वाकई उन्हें अपने पुत्र के लिए टीचर चाहिए है !

गुरु श्री राम सजीवन जी हम दोनों भाइयों के सर्वकालिक आराध्य गुरु रहे हैं ! हम पर उन्होंने बड़ी मेहनत की ! वे हमारे ऐसे पहले गुरु थे ...जिनसे हमारा दिल का रिश्ता स्थापित हो गया था ! उनके बिना हमारा दिन ही नहीं कटता था ! हर दिन वे हमें कुछ न कुछ नया सिखाते !

इस साल ही दूरदर्शन पर रामानंद सागर का मशहूर सीरियल ''रामायण'' प्रसारित होना शुरू हुआ... और काफी जद्दोज़हद और इसके हानि- लाभों पर कई दिनों तक चली विशेषज्ञों की गहन मंत्रणा के बाद... हमारे घर बुश कम्पनी का ''ब्लैक एंड व्हाइट'' टी. वी. आ पाया ! उन दिनों हमारे यहाँ सुविधाओं की बहुत कमी थी... बिजली हमारे यहाँ दिन भर में मुश्किल से ६ से ७ घंटे आती थी ...और उसमे भी इतना लो वोल्टेज ...कि कोई उपकरण चल ही नहीं पाते ! टी. वी. आ तो गया था पर बिजली की वज़ह से कोई कार्यक्रम देख ही नहीं पाते थे ! वैसे भी १९८७ में दूरदर्शन पर गिने चुने कार्यक्रम ही आते थे ...सन्डे को रामायण और फिल्म के अलावा विक्रम बेताल, सिंहासन बत्तीसी, बुनियाद, चित्रहार सभी की पसंद के कार्यक्रम थे.... जिन्हें देखने हमारे घर पर भारी भीड़ लग जाती थी !

इस वर्ष ''रिलायंस वर्ल्ड कप'' हुआ ....और हमारा क्रिकेट प्रेम सारी हदें पार कर गया ! उन दिनों ''बिग फन'' बबलगम कम्पनी ने एक कोंटेस्ट शुरू किया... जिसे जीतने के लिए हमने कई दोस्तों के साथ मिलकर चन्दा जुटाया ....और उससे बबलगम ख़रीदे गए ...जिन्हें खाने में मेरी कोई रूचि न थी... मेरी रूचि मात्र उनमे निकलने वाले स्कोर कार्ड में थी ! बहरहाल हमने पर्याप्त स्कोर इकट्ठा कर खिलाडियों के कई पोस्टर जीते ...और वे पोस्टर लम्बे समय तक हमारे कमरों की दीवारों की शान बने रहे !

इस वर्ष आग ही आग, लोहा, सिंदूर, मिस्टर इंडिया, नगीना, प्रतिघात, प्यार झुकता नहीं, बाबुल, नाम जैसी नयी फिल्मों के गाने सुनने के लिए चित्रहार और चित्रलोक जैसे कार्यक्रमों को हम बड़ी दिलचस्पी से देखते और सुनते थे! वीडिओ पर फिल्म देखना किसी उत्सव की तरह होता ... और बाकायदा कई मित्र चन्दा जोड़ कर यह पुनीत कार्य सम्पादित करते ....हालांकि समाज में हमारे कई शुभ चिन्तक इसे हिकारत की द्रष्टि से देखते !
(TO BE CONTINUED... )


* * * * * PANKAJ K. SINGH

Saturday, July 24, 2010

आओ सीखें पोस्ट लिखना....

बीते कुछ दिनों में ब्लॉग पर पोस्टों की संख्या में गिरावट देख रहा हूँ...कारण कोई खास नज़र नहीं आया....ब्लॉग पर पुराने ही दिग्गज कलम घिसे जा रहे है....जैसा की आप सभी जानते हैं कि ये ब्लॉग सहकारी प्रयास पर आधारित है....इसलिए इसको मकसद तक ले जाना मेरा प्रथम कर्तव्य है....यानि मुझे आपने हिस्से कम करना है....संसाधनों के अभावों में जो मक़ाम बनाता है इतिहास उसी का लिखा जाता है...इस लिए काम करना है...ब्लॉग पर नये लोग जुड़ने में कम उत्साह दिखा रहे है....नये लोगों के उत्साह को ब्लॉग पर दर्ज़ कराने के लिए नई पहल की शुरुआत कर रहा हूँ....शायद इसके कुछ सार्थक परिणाम ब्लॉग पर जल्द दिखाइए दे....इसी उम्मीद के साथ बिस्मिल्लाह करते है....पोस्ट लिखने के कुछ आसान तरीकों पर......

इस पहल के जरिये हम आपको बताएँगे पोस्ट लिखने के कुछ आसान और असरदार तरीके.....

सबसे पहले समझ लेना चाहिए की विचारो को लिपिवद्ध करना ही लेखन है.दरअसल लेखन एक दर्शन है..यानि जब तक देखा नहीं तब तक लिखा नही.
पोस्ट की भाषा कैसी हो:- पहले ये जान ले की आपका माध्यम कंप्यूटर है...जिसके जरिये आप कम्युनिकेट कर रहे है....इसलिए इसकी भाषा बेहद सरल और विश्लेषणों से मुक्त हो.....ब्लॉग पर लिखी जाने वाली आप की पोस्ट की भाषा हिंदी सिनेमा की तरह होनी चाहिए...ताकि हर किसी को आसानी से समझ में आ सके.ध्यान रहे की ब्लॉग को पड़ने वाले ग्रामीण अंचल में रहने वाले भी है.....और बच्चे भी है इसलिए जरुरी है पोस्ट में आम बोलचाल की भाषा ही प्रयोग में लायें.आपकी भाषा ऐसी होनी चाहिए ताकि पोस्ट हर किसी पर असर डाल सके.....उदाहरण:-
November 19, 2009 बावस्तगी चलती रहे......(नजरिया ब्लॉग में लिखी गयी इस पोस्ट को देखें....)
पता ही नहीं चला कब 10 साल गुजर गए...... मुट्ठी से रेत की तरह.......शायद उससे भी ज्यादा तेज........ऐसे कि पलकें बंद कीं और खोलें तो एक दशक गुज़र जाए...! आज अंजू के साथ 10 साल का सफ़र पूरा हुआ है....1999 में जब हमारी शादी हुयी थी तो हम महज 24 बरस के थे वो उम्र कि जब बच्चे अपने कैरियर को शेप दे रहे होते हैं.....हमने अपना कैरियर बनाया और झट से शादी कर डाली........! मंसूरी से ट्रेनिंग ख़त्म हुयी और उसके तुरंत बाद हम परिणय सूत्र में बंध गए......! इस बीच हमने जिंदगी के तमाम उतार चढ़ाव देखे....कुछेक मुश्किलें जरूर आयीं मगर ईश्वर की कृपा से सब कुछ ठीक ठाक निबट गया...........एक सर्विस से दूसरी और फिर दूसरी से तीसरी........अंतत: देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में ..... दो मासूम बेटियां.........कानपुर- लखनऊ-बरेली-गाज़ियाबाद के बाद अब गोरखपुर प्रवास..............
एक और देखें
http://pkstiger.blogspot.com/2010/04/blog-post.html (पर लिखी गयी पोस्ट को देखें)
गुरुदत्त का नाम जेहन में आते ही एक ऐसे फ़िल्मकार एवं नायब शख्स की तस्वीर उभरती है जिसने वक्त से बहुत आगे जाकर काम किया | गुरुदत्त ने हिंदी सिनेमा को जो फ़िल्में दी हैं विषय वास्तु, तकनीकी, सम्पादन और संगीत एवं अभिनय सभी स्तरों पर वस्तुत: वे अनमाले व् अविस्मरणीय रचनाये हैं | ९ जुलाई १९२५ को मंगलौर में जन्में गुरुदत्त का व्यक्तित्व पर समन्वित संस्कृति का प्रभाव पड़ा |

इस पोस्ट में देखेंगे की पोस्ट को बेहद सरल भाषा में लिखा गया है...पोस्ट में विश्लेषणों का प्रयोग भी नहीं किया गया है..बस अपनी बात को सीधे और सरल भाषा में व्यक्त किया गया है....
पोस्ट को लिखते समय नए लेखकों को पोस्ट में भारी-भरकम शब्दों के इस्तेमाल से बचना चाहिए.पोस्ट लिखते समय इस बात का विशेष ख्याल रखें की पोस्ट महज आपके अनुभव और दिल की बात का एक लिखित दस्तावेज है.
पोस्ट की शुरुआत कैसे करें:-नए लेखकों के साथ पोस्ट की इब्तदा और इन्तहां यानि शुरुआत और आख़िर को लेकर बड़ी दिक्कत रहती है.नए लेखकों से इतना ही कहना चाहूँगा कि इस डर को दिल से निकाल कर बस लिखने बैठ जाना चाहिए....हाँ बस कुछ बातों को जरुर ध्यान में रखना चाहिए.पोस्ट ''5 डब्लू और 1 एच'' पर आधारित होनी चाहिए...यहाँ पर 5 डब्लू और 1 एच'' से मतलब what - क्या.when-कब.where -कहाँ.whom -कौन.why -क्यों और how -कैसे. पोस्ट को लिखते समय इन सवालों का जवाब पाठक मिलना चाहिए.उदाहरण:-
September 13, 2009 बोरलाग का जाना (नजरिया ब्लॉग में लिखी गयी इस पोस्ट को देखें....)
ख़बर मिली कि नॉर्मन बोरलाग नही रहे.....एक टीस सी उठी. बोरलाग वही शख्स थे जिन्होंने 1970 के दशक में भारत और तमाम विकासशील देशों को भोजन उपलब्ध कराने में महती योगदान दिया था। हरित क्रांति के मसीहा के रूप में उन्होंने पिछड़े देशों में खाद्यान्न उपज के प्रति जो आन्दोल चलाया उसका सम्मान उन्हें नोबेल पुरुस्कार के रूप में मिला। ऐसे में डॉक्टर एमएस स्वामीनाथन का यह कहना बिल्कुल सटीक ही है कि "नॉर्मन बोरलॉग भूख के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाले महान योद्धा थे. उनका मिशन सिर्फ़ खेतीबाड़ी से पैदावार बढ़ाना ही नहीं था, ल्कि वो ये भी सुनिश्चित करना चाहते थे....

इस
पोस्ट में उपरोक्त विधा का प्रयोग किया गया है.

पोस्ट का फोरमेट:-यूँ तो पोस्ट अधिकतर फीचर विधा में लिखीं देखीं गयीं है...चूँकि पोस्ट में लेखक अपनी भावनाओं और ज़ज्बातों का ही लेखा-जोखा पेश करता है.एक बात ओर लेखक को पोस्ट में मनोवृत्ति से बचाना चाहिए.पोस्ट स्रजनात्मक लेखन की विधा में आता है. पोस्ट लेखन एक अलग विधा के तौर पर नजर आती है.फिर भी इसके लेखन के नियम अलग नहीं है.इसलिए फीचर और पोस्ट में अंतर बेहद कम है.फोरमेट के तौर पर पोस्ट को उल्टा पिरामिड शैली में लिखा जाना चाहिए.मसलन पहले मुख्य बात..फिर उससे कम महत्व की बात और आखिर में बिल्कुल कम महत्व की बात...पोस्ट को तीन भाग में बाँटते है.पहला भाग पोस्ट को मुखड़ा यानि पोस्ट का इंट्रो कहलाता है .मुखड़ा किसी भी पोस्ट की जान होती है..पोस्ट की शुरुआत अगर रोचक है तो पाठक पोस्ट को गम्भीरता से पढ़ेगा..इसलिए इस पर नए लेखकों को अधिक महनत करनी चाहिए.दूसरा भाग को मीडिल कह सकते है.इसकी शुरुआत इंट्रो के अंत से होती है जो बात मुखड़े में कही गयी है उसी को दुसरे भाग में एक्सप्लेन किया जाता है.पोस्ट का तीसरा भाग यानि अंतिम भाग में पोस्ट का कन्क्लूजन लिखा जाता है..इस तरह से पोस्ट तैयार की जाती है.
पोस्ट को कैसे सुंदर बनायें:-पोस्ट को सुंदर बनाने के लिए पोस्ट में भाषा अशुद्धि नहीं होनी चाहिए.साथ ही शब्दों के चयन में खास सावधानी बरतें.वाक्य ज्यादा बड़े न हों.दस शब्दों में आपका एक वाक्य पूरा होना चाहिए.उदहारण:-
Saturday, July 10, 2010 स्पेन या हालैंड.....? (नजरिया ब्लॉग में लिखी गयी इस पोस्ट को देखें....)

फुटबाल के इस सीजन में सिंह सदन क्यों चुपचाप रहे.....स्पेन और हालैंड के बीच होने वाले फुटबाल मैच का मज़ा कल रात में लीजिये, मगर मेरी इच्छा है कि इस मैच को देखने से पूर्व शकीरा का "वाका - वाका" देखें और मैच को देखते हुए मुझे भी याद कर लें.....! शकीरा का "वाका - वाका" कैसा लगा जरूर बताएं.....!
तो ये थे कुछ टिप्स जो पोस्ट लिखने में आपकी मदद करेगें..उम्मीद है नए लेखकों के लिए ये पोस्ट उपयोगी साबित होगी.....
*****हृदेश सिंह**


Thursday, July 22, 2010

लीजो खबरिया हमार.......................


अपने पुष्पेन्द्र यानी पिंटू ने अपने व्यक्तिगत ब्लॉग पर आज बेहद मार्मिक और प्रभावशाली गीत लिखा है.....मैं हैरान हूँ कि कैसे इस नौजवान गीतकार ने विरहन के दर्द को खुद से एकाकार करते हुए यह अद्भुत रचना कर डाली है. गीत के पूरे तेवर मौजूद हैं इस गीत में.....मैं तो मसूरी में सावन की रिमझिम के बीच इस गीत को गुनगुनाने का आनंद उठा रहा हूँ.....विरह में डूबी नायिका की मनोभावना का बड़ा ही खूबसूरत वर्णन किया है पिंटू ने इस गीत में .....हर एक "बंद" गहरी छाप छोड़ जाता है .....!
मैं तो पिंटू से यही कहूँगा लिखते रहो, गीतों में तुम्हारी अभिव्यक्ति बहुत ही प्रभावशाली है.....पिंटू के इस गीत को सुनकर गुलज़ार साहब के उस अद्भुत गीत की याद आ गयी जो 'लता जी' ने 'लेकिन' पिक्चर में गाया है, समय मिले तो आप लोग भी सुनियेगा , गीत के बोल हैं 'सुनियो जी अरज म्हारी....!"
फिलहाल तो आप सब लोग इस गीत का आनंद उठायें...अच्छा लगे तो पिंटू को अपना स्नेह लिख कर जरूर भेजिएगा.....किसी भी रचनाकार के लिए उत्साह वर्धन उसकी प्रगति के लिए अत्यंत आवश्यक है.......!


हम आये है तोहरे द्वार ओ राजा
लीजो खबरिया हमार.......................
बरसों से अँखियाँ है सूखीं
किस्मत जैसे हम से रूठी
करि- करि तुम्हारी याद - ओ राजा
लीजो खबरिया हमार ....................
जियरा मोरा एसे धडके
जल बिन मछली जैसे तडपे
ऑंखें गयीं पथराय ..... ओ राजा
लीजो खबरिया हमार ....................
तुम दुनियां में एसे उलझे
समझ के मोरा दर्द ना समझे
दिल से दियो बिसराय -ओ राजा
लीजो खबरिया हमार ....................
हम आये है तोहरे द्वार ओ राजा
लीजो खबरिया हमार.......................

RETRO PARADE - 1986



याद न जाए... बीते दिनों की... !


वर्ष 1986 का प्रारंभ - अचलगंज (उन्नाव)
वर्ष 1986 का समापन - अचलगंज (उन्नाव)

वर्ष1986 हमारे बालपन का स्वर्णकाल कहा जा सकता है ! स्कूल... वही.. पंडित अवध बिहारी ! प्रिंसिपल ... श्री कमल पाण्डे !

इस वर्ष भैया क्लास ७ से ८ में पहुँच गए... और मैं ४ से ५ में ! अध्ययन क्षेत्र में सुधार की द्रष्टि से हम दोनों भाइयों के लिए यह वर्ष बेहद महत्त्व का सिद्ध हुआ ! कई श्रेष्ठ गुरुजनों का आशीर्वाद और संरक्षण मिलने से मानो हम दोनों का जीवन ही बदल गया ! हर रोज ही हम कुछ न कुछ नया सीखते ! इंग्लिश , हिंदी , मेथ्स , विज्ञान सभी विषयों में हम शनै:- शनै: पारंगत होते चले गए !

कला क्षेत्र में भी हमारी रुचियाँ बेहद परिष्कृत हो रही थीं ! मुझे चित्रकला में आनंद मिलने लगा ! मेरी सभी कोपियाँ एतिहासिक चित्रों से रंगीन रहती थीं ! प्राचीन और मध्य कालीन भारत की एतिहासिक घटनाओं के चित्र बनाना मेरी परम रूचि का कार्य बन गया ! एक्साम में उत्तर लिखते समय चित्र मैं अवश्य ही बनाता था ! हाँ ...परन्तु मैं काफी शर्मीला था ! प्रत्येक शनिवार को होने वाला बाल दिवस मेरे लिए एक मुसीबत ही था ....जिसमे बच्चों को मंच पर परफोर्म करना होता था ! भैया जहां एक से बढ़कर एक गीत सुनाते ...वहीँ मैं बगलें झांकता मिलता ! एक बार मैं बड़ी मुश्किल से बड़ी तैयारी के बाद कुछ लाइनें गा पाया ! गीत था ... ''है प्रीत जहाँ की रीत सदा '' !

मुझे इस बात का बड़ा गर्व रहता था.... कि मेरे बड़े भाई क्लास ८ जैसी बड़ी कक्षा में पढ़ते हैं.... और काफी सीनिअर लड़के मेरे घर आते रहते हैं ! यही नहीं पिताश्री भी अक्सर स्कूल पहुँच जाते थे .... और अक्सर भैया की क्लास में पढ़ाते थे ! इससे पूरे स्कूल में हलचल रहती थी ! कुल मिलाकर स्कूल में मेरा ''सेलेब्रिटी स्टेटस'' स्थापित था ! बड़े आनंद और गौरव के दिन थे वह !

हमारे घर के नजदीक एक अत्यंत संवेदनशील कवि... श्री विशेश्वर जी रहते थे ....जिनकी कविताओं का पाठ भैया द्वारा अक्सर स्कूल में होता था ! उनकी इंदिरा गाँधी पर लिखी और भैया द्वारा स्वर बद्ध की गयी कविता ने तो मानो इतिहास ही रच दिया था ! पूरे क्षेत्र में दूर- दूर तक इस कविता की धूम मच गयी थी ...और हजारों लोगो ने इसे लाइव सुना था !

क्रिकेट और बाल साहित्य हमारी रूचि के नए क्षेत्र बने ! रोज शाम को एवं अवकाश के दिन क्रिकेट मैच होना तय था ! अधिक सुविधाओं का वह समय न था ! लकड़ी के हाथ से बने बैट का प्रयोग होता था ! मैच में विवाद बहुत अधिक होते थे ....और अधिकांश मैच ''अनिर्णय'' का शिकार हो जाते थे ! मुझे क्रिकेट की टेर्मिनालोजी समझने में साल भर लग गया ...मसलन मेंडन ओवर , वन डे और टेस्ट मैच में अंतर , एल. बी. डब्लू. , लिमिटेड ओवर आदि! बहरहाल क्रिकेट हमारी रग - रग में बस गया ! क्रिकेट की लाइव कमेंट्री भी अब हमे रुचिकर लगने लगी थी !

बाल साहित्य भी हमारा दूसरा ''पैसन'' था ! अचलगंज जगह छोटी थी पर हम दोनों भाई ढूंढ - ढूंढ कर पराग , बाल भारती , नंदन , लोट- पोट , मधु मुस्कान , चन्दा मामा और कोमिक्स ले ही आते थे ! प्रभात और नूतन कोमिक्स उस समय हम काफी चाव से पढ़ते थे ! खासकर राजा और राजकुमारों की कथाओं का तो मैं दीवाना था !

मनोरंजन के अन्य साधनों में उस समय केवल रेडियो ही था ....और रेडियो से हमारे पूरे परिवार को ही बड़ा प्रेम था ! सबकी पसंद की अलग - अलग कार्यक्रम होते थे ! सुबह माँ द्वारा भजन लगा दिए जाते ...और उसके बाद ''विविध भारती'' की रंगीन दुनिया में सभी खो जाते ! छाया गीत... भूले -बिसरे गीत ...मुझे बचपन से अच्छे लगते रहे हैं ! ''चित्रलोक'' तो सभी का प्रिय कार्यक्रम था ! इसी से नयी फिल्मों के विषय में जानकारी हम पाते थे ! अवकाश के दिनों में तो रेडियो ही हमारा साथी होता था ! ''जयमाला'' और सभी ''प्रायोजित कार्यक्रम'' हम पूरी तरह तन्मय होकर सुनते थे !

हमारे इंग्लिश के अध्यापक हमे रेडियो पर इंग्लिश समाचार सुनने के निर्देश देते... तो हम उनकी बुद्धिमत्ता का लोहा माने बिना न रह पाते ....और हाँ उस समय के हमारे आइकोन प्रमोद भैया के विषय में चर्चा बहुत आवश्यक है ! वे जब गाँव से आते थे तो हम उनके जादुई आकर्षण से निहाल रहते थे ! उनके लिखे पत्र जवाहर लाल नेहरु शैली के होते थे ! हमारे सभी टीचर उनके दोस्त होते थे ....इस बात से हम बहुत ही इम्प्रेस होते थे ! उनके पास जैसे ज्ञान का विशाल खजाना होता था ...और हम दोनों भाई उसे लूट लेने के लिए हर पल घात लगाये रहते थे !

* * * * * PANKAJ K. SINGH

Tuesday, July 20, 2010

RETRO PARADE - 1985



आया मौसम दोस्ती का ....

वर्ष1985 का प्रारंभ - अचलगंज (उन्नाव)
वर्ष 1985का समापन - अचलगंज (उन्नाव)

वर्ष 1985 को इस सफ़र की शुरुआत के लिए मैंने इस लिए चुना है .....क्योंकि इसी वर्ष को मैं सही मायनों में अपने चेतन के प्रारंभ होने का वर्ष मान सकता हूँ ! इससे पहले के कतिपय वर्षों के तथ्यों के विषय में कदाचित मैं आपको बहुत अधिकार पूर्वक नहीं बता सकता ! वैसे भी पूज्य भैया इन भूली - बिसरी यादों पर से परदे उठा ही चुके हैं ...और वे मुझसे कहीं अधिक स्म्रतिवान भी हैं ही !

1985 से अध्ययन क्षेत्र में मैं भैया का अनुयायी हो गया ! उनसे तीन क्लास जूनियर होने और हर जगह उनका सहचर होने का धर्म मैं बांगरमऊ (उन्नाव) से आज तक निभाने का प्रयत्न कर रहा हूँ ! ....तो १९८५ में मैं क्लास ३ और भैया क्लास ६ के विद्यार्थी थे ! यहाँ के पंडित अवध बिहारी स्कूल के हम छात्र थे ! भैया जन्मजात टॉपर थे ... तो मैं धीरे - धीरे ही आगे बढ़ पाया !

यह वर्ष मेरे लिए मिले - जुले संघर्ष का वर्ष था ! कई बार मैं पढाई- लिखाई से घबरा भी जाता था .... पर भैया की सुखद मौजूदगी मुझे सदैव हिम्मत देती रही ! शुरू में मैं गणित और अंग्रेजी में कमजोर था ...पर इसी स्कूल में चुनौतियों ने मुझे लड़ने का हौसला और प्रेरणा दी... और मैं भी क्लास का मेधावी छात्र बन गया ! यद्यपि यहाँ मेरे दोस्त कुछ खिलाडी टाइप लड़के ही ज्यादा बने .... इनमे नाटू , सुनील कारपेंटर , अरुण शर्मा , अमित गुप्ता और अवधेश घामड़ प्रमुख थे !

अरुण गुप्ता पढाई में मेरे मुकाबले का छात्र रहा और उससे रैंक संघर्ष कई वर्षों तक जारी रहा ! ख़ास बात यह थी कि स्कूल इस कदर अच्छा लगने लगा ....कि छुट्टियों के दिन भी दोस्तों का किसी न किसी जगह मिलना तय हो जाता ! दोस्तियाँ इस कदर गहरी हो गयीं ...कि यकायक दुश्मनियाँ बढ़ गयीं ! क्लास में भयंकर गुटबाजी हो गयी क्लास दो -फाड़ हो गया ! एक तरफ मैं अपने मित्र देशों यथा अमित अरुण अवधेश सुनील आदि के साथ ...तो दूसरी तरफ नाटू बाजपेयी , अरुण गुप्ता , आशीष तथा कुछ एन. आर. आई. टाइप संसाधन संपन्न लड़कों का ग्रुप !

तय हुआ... कि मात्र शब्द बाणों से कुछ सिद्ध नहीं होगा ....बाहुबल का परीक्षण अपरिहार्य है.... और इसके लिए लंच टाइम में बाकायदा धुआधार फाईटिंग मुकाबला तय हुआ ! नियमित रूप से हर दोपहर लंच में स्कूल का फील्ड कुरुक्षेत्र में तब्दील हो जाता ! लंच समापन की घंटी महाभारत युद्ध की तरह सूर्यास्त की घोषणा होती ! इस फाईटिंग में भयंकर मार होती ....हर प्रकार के अस्त्र जैसे बेल्ट ,हंटर ,चाबुक , रोड ,नुकीले बूट आदि का खुला प्रयोग होता .... और लंच के बाद बाकायदा युद्ध के नतीजों पर चर्चा होती... और अगले दिन के लिए रणनीतियां बनतीं !

अक्सर हमारे घर पर युद्ध की रणनीतिक बैठकें होती .... और जैसा कि होना ही था .... कुछ ही दिनों में इस हिंसक युद्ध की ख़बरें पूरे इलाके में फ़ैल गयीं ....और स्कूल मेनेजमेंट ने इस युद्ध पर प्रतिबन्ध लगा दिया !

इसी वर्ष मेरा और भैया का आकर्षण पढाई के अलावा क्रिकेट और बाल साहित्य की ओर भी बहुत अधिक बढ़ गया था ...जो आगे अनेक वर्षों तक जारी रहा ....या कह सकते हैं कि आज तक बदस्तूर कायम है !

(TO BE CONTINUED...)

*****PANKAJ K. SINGH

लखीमपुर खीरी....खंडित यादें !


अचलगंज की मोहक यादों के बाद सफ़र का अगला पड़ाव लखीमपुर खीरी रहा....यहाँ हम एक साल ही रहे। इस एक बरस की यादों का टूटा-फूटा लेखा-जोखा पेश कर रहा हूँ ......!


1988 में हम लखीमपुर खीरी आ गए... ! अचलगंज छोड़ते वक्त बहुत दुःख हुआ....ऐसा लगा कि इस जगह को छोड़ने के बाद हम कहीं और इतना आनंद नहीं उठा पाएंगे मगर वक्त कहाँ टिकता है....?

यहाँ धर्मसभा कालेज में मैंने एडमीसन लिया....पंकज और जोनी का कुंवर खुस्वक्त राय स्कूल में एडमीसन हुआ। हम लोग एक वकील साहब के मकान में किराये पर रहने लगे..... वकील साहब कुछ तुनकमिजाज थे सो हमारे परिवार के साथ उनके साथ रिश्ते बहुत भावनात्मक नहीं हो सके, वकील साहब कि दो पत्नियाँ थी। वकील साहब का एक पुत्र टीटू था जो हम उम्र था....उसके साथ जरूर ठीक-ठाक याराना रहा. यहाँ हमने क्रिकेट खूब खेला.


अचलगंज से पत्रिकाएं-कोमिक्स पढ़ने का जो शौक लगा था...वो लखीमपुर में परवान चढ़ा। रेलवे स्टेशन पर ए.एच. व्हीलर की दुकान से हम लोग नियमित तौर पर पत्रिकाएं-कोमिक्स खरीदते और पढ़ते. बालहंस नमक नयी पत्रिका उन दिनों प्रकाशित होना शुरू हुयी थी, मैं और पंकज उस पत्रिका के नियमित पाठक हो गए थे......नन्हे सम्राट भी उन्ही दिनों प्रकाशित होना शुरू हुयी सो उसे भी हम लोग पढ़ते थे...बाकी नंदन, पराग, चंदामामा, डायमंड कमिक्सेस के तो हम पुराने मुरीद थे ही. दैनिक जागरण में उन दिनों अंतिम पृष्ठ पर हर दिन नए तरीके के रंगीन परिशिष्ट आने लगे थे...शनिवार को बच्चों का पन्ना प्रकाशित होता था....उसमें पहेली भी आया करती थी, हम दोनों भाई उनके हल पोस्ट किया करते थे....मगर उन दिनों तक हम कोई प्रतियोगिता जीत नहीं सके थे.



लखीमपुर में हमने एक साल में तीन मकान बदले.....पहले जिस मकान में रहे वो किसी वकील साहब का था.....वकील साहब के साथ हमारे परिवार से राब्ता बहुत दिन तक न चल सका....कारण तो मुझे याद नहीं....मगर जल्दी ही हमने उस मकान को छोड़ दिया....! नए मकान में शिफ्ट हो गए....यह मकान छोटा था....सो इसे भी जल्दी छोड़ दिया. बमुश्किल एक-दो महीने ही इस मकान में हमने गुज़ारे होंगे. इस मकान में हम संभवत: नवम्बर- दिसंबर में रहे थे....! प्रमोद भैया इस मकान में आये थे....यह वो समय था जब टीवी पर हिंदी सिनेमा के लीजेंड डाइरेकटर्स की फिल्मों का 15 दिवसीय कोई कार्यक्रम चल रहा था.....हर दिन रात राजकपूर-गुरुदत्त-बिमल रॉय जैसे बड़े निर्देशकों की फिल्मों का प्रदर्शन डीडी पर किया जाता था.....हम सब ने मिलकर उन दिनों आवारा, जिस देश में गंगा बहती है, श्री 420, आह, दिल अपना और प्रीत पराई जैसी फ़िल्में देखी. प्रमोद भैया के साथ पिक्चर देखने का आनंद उन दिनों कुछ और ही हुआ करता था. इस मकान के बाद हम रामलीला मैदान की तरफ हम नए मकान में शिफ्ट हुए. यह मकान अच्छा था......यहाँ हम लोग तीन-चार महीने रहे. पापा के लगातार ट्रांसफर और हमारी पढ़ाई को देखते हुए पापा-मम्मी ने मैनपुरी शिफ्ट होने का निर्णय लिया.

दोस्तों की फेहरिश्त यहाँ बहुत ज्यादा नहीं रही....कुछ क्लासमेट जरूर दोस्त बने जो बहुत स्वाभाविक भी था...मगर इस शहर से ऐसा कोई रिश्ता नहीं जुड़ा जो बहुत दिल को छुआ हो....विजय पाठक और दिनेश खरे ये दो नाम ज़रूर मुझे याद आ रहे हैं जिनसे कालेज के दौरान अच्छा जुड़ाव रहा. विजय पाठक पंजाबी कोलोनी में रहते थे.....सो वे तुलनात्मक रूप से कुछ मोडर्न विचारधारा के थे.....सूप-सैंडविच जैसे फास्ट फ़ूड के जानकार थे, ब्रेक डांस उन्हें बहुत अच्छा लगता था, सो मिथुन-गोविंदा-जावेद जाफरी उनके प्रिय कलाकार थे. मेरी बुद्धि तब तक बहुत ज्यादा दुनियावी नहीं हो पाई थी. दिनेश खरे कालेज के ही बड़े बाबू के सुपुत्र थे...वे मोडर्न नहीं थे...मगर पढ़ने में मेहनती थे. दिनेश खरे त्रिगोनोमेट्री आदि में ठीक-ठाक थे...! उन्ही दिनों एक- दो नए दोस्त भी बने लेकिन उन नामों को अब याद नहीं कर पा रहा हूँ ....शायद आनंद अवस्थी भी उनमे से कोई एक था.


बहरहाल लखीमपुर से क्लास 10 किया सो एक साल में इससे ज्यादा यारानों की उम्मीद भी नहीं की जा सकती....!



दो चीजें जरूर ऐसी थीं जिनके लिए लखीमपुर हमेशा याद रहेगा .



पहला- आइवर युशियेल की एक किताब "साईंस एक्सपेरिमेंट्स" मैंने यहाँ खरीदी जिसके बाद मैंने कई प्रयोग किये... और इस किताब ने मुझे एक ''साइंटिस्ट" बनने के लिए प्रेरित किया...मगर यह बुखार बहुत जल्दी उतर गया, जब पापा ने कहा पहले हाई स्कूल पास कर लो तब कुछ और सोचना ........ मुझे तब लगा था कि 'एक साइंटिस्ट बहुत जल्दी मर गया'......! वैसे इन्ही दिनों मैंने स्कूल स्तर पर विज्ञान मेला में भाग लिया और साइंस का कोई माडल अपने दोस्तों के माध्यम से बना कर 'डेमो' किया।



दूसरा- यहाँ आकर मुझे स्कूल-ट्यूशन आदि पैदल जाना पड़ता था...सो एक साइकिल पापा ने नयी खरीदी ... नीले रंग की इस साइकिल ने मेरे जीवन में जैसे रंग भर दिए ...अब मुझे लगता था कि इस साइकिल से मैं दुनिया के किसी भी कोने का चक्कर लगा सकता हूँ....! साइकिल को साफ़ करना उसे चमचमाता हुआ रखना अब मेरी दिनचर्या के अभिन्न अंग थे....कभी -कभी यह साइकिल पंकज भी चला लिया करते थे...!
क्रमश:
*****PK

Saturday, July 17, 2010

सुनहरी यादें पार्ट -2.

अचलगंज की कुछ भूली बिसरी कहानियों और घटनाओं को मैंने कुछ दिन पहले अचलगंज की सुनहरी यादें -1 के नाम से प्रस्तुत किया था...आज उन्ही यादों का दूसरा अंक आपके सामने परोस रहा हूँ....स्वाद लीजिये और अपने भावों से अवगत भी कराईये.....!

अचलगंज में कक्षा 6 से कक्षा 8 तक की शिक्षा , पण्डित अवध बिहारी जू0हा0 स्कूल में प्राप्त की। यह विद्यालय कई अर्थो में मेरे जीवन के लिए महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। कक्षा 6 से ही ‘प्रथम’ आने की ललक ने सहपाठी परमेश्वार के साथ मित्रवत प्रतिद्वन्दिता का आरम्भ किया। हुआ यह कि परमेश्वर भी मेरी कक्षा में ही था और वह भी पढ़ने में मेधावी था। उन दिनों त्रैमासिक, अर्धवार्षिक तथा वार्षिक परीक्षाएं हुआ करती थीं। इस प्रकार साल भर में तीन अवसर ऐसे आते थे कि जब परमेष्वर और मेरे बीच ‘एक्ज़ाम वार’ चला करता था। इस ‘वार’ में हमारे अन्य सहपाठी तो रूचि लेते ही थे, हमारे शिक्षकों में भी दिलचस्पी रहती थी कि इस एक्ज़ाम में मैं फर्स्ट आऊंगा या परमेश्वर । बहरहाल कक्षा 6 से कक्षा 8 तक कुल मिलाकर नौ परीक्षाएं हुई और हर बार कभी मैं तो कभी परमेश्वर फर्स्ट और सेकेण्ड आते रहे। मत्वपूर्ण बात यह रही कि कक्षा 8 की परीक्षा उन दिनों डिस्ट्रिक्ट बोर्ड लेता था। बोर्ड की परीक्षाओं का उन दिनों बड़ा खौफ रहता था। इस परीक्षा में विद्यालयों के केन्द्र भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजे जाते थे। हमारे विद्यालय को समीपवर्ती ग्राम ‘इटौली’ में भेजा गया था। इस प्रतिष्ठित परीक्षा में मैं विद्यालय में तो प्रथम आया ही समूचे जनपद की जो मेरिट लिस्ट बनी थी उसमें भी मैं जिले स्तर पर सर्वाधिक अंक पाने वाले छात्रों में शामिल था। जब समाचार-पत्रों में इस रिजल्ट का प्रकाशन हुआ तो मुझे तो ख़ुशी थी ही मेरे पापा को जो ख़ुशी हुई वह मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। सच तो यह है कि पढ़ाई के प्रति ललक पैदा करने में सबसे बड़ा योगदान उन्हीं का था। पुलिस की सख्त ड्यूटी से जब वे देर रात घर वापस आते तो मुझे जगाते और रात में लालटेन की रोशनी में (उन दिनों अचलगंज में विद्युत आपूर्ति न के बराबर थी) मुझे गणित और अन्य विशय पढ़ाते। कभी-कभी वे मुझे ‘कॉनवाय ड्यूटी’ में साथ ले जाते और ‘बदरका’ पोस्ट पर मुझे गणित पढ़ाते। एक ओर मैं गणित के सवालों में उलझा रहता था, दूसरी ओर वे अपनी केस डॉयरी पूरी करते। फिर लौटता हूँ अपने स्कूली जीवन पर। इस दौरान श्री रामसजीवन यादव जैसे शिक्षक के योगदान को मैं नही भूल सकता जिन्होंने मुझे और पंकज को सातवीं और आठवीं कक्षा में अंग्रेजी पढ़ाई। आठवीं में मेरिट लिस्ट में आने के बाद मैंने ‘आदर्श इन्टर कॉलेज’ अचलगंज में दाखिला लिया। दाखिले से पूर्व कॉलेज के ‘इन्ट्रेंस टेस्ट’ में भी मैं टॉप पर रहा।

उधर पंकज भी कक्षा 5 में टॉप पर रहे। पंकज की पेन्टिंग और स्केचिंग स्कूल में बड़ी मशहूर थी। पंकज के बारे में यह कहा जाता था कि वे किसी भी आदमी की शक्ल को हूबहू पेंसिल से कागज पर उतार सकते थे। जौनी ने स्कूल जाते ही ‘पूत के पॉव पालने में दिखने’ वाली कहावत चरितार्थ करना आरम्भ कर दिया। उन्हें स्कूल ले जाने में बकायदा ‘बल प्रयोग’ करना पड़ता था। स्कूल न जाने की शायद उन्होंने कसम खा रखी थी और जब किसी दिन वे स्कूल चले भी जाते थे तो शाम को स्कूल से उनके ‘साहसी कारनामों’ के विषय में कोई न कोई नोटिस आ जाती थी।
मैंने कक्षा 9 आदर्श इन्टर कॉलेज से किया, यहाँ नये शिक्षक और नये दोस्त मिले। शिक्षकों में मैं श्री वीरेन्द्र सिंह यादव का बहुत आभारी हूँ कि उन्होंने साइंस और गणित में मुझे उन दिनों से ही रूचि पैदा कर दी। मित्रों में यहाँ पर ललित, हरिओम, शिव प्रसाद तथा श्याम सिंह यादव जैसे दोस्त बने। कक्षा 9 के बाद पापा का स्थानान्तरण लखीमपुर खीरी हो गया। 1988 में अचलगंज छोड़ कर हम लोग लखीमपुर खीरी आ गये।अचलगंज में ही कुछ लोगों से रिश्ते बहुत प्रगाढ़ हुए जिनसे अब तक सिलसिला कायम है। इस संदर्भ में सबसे पहले शांति आन्टी का नाम लेना चाहूँगा। वे स्वास्थ्य विभाग में थीं। उन्होंने भी किराये पर मकान उसी मकान में लिया था, जहाँ पर हम लोग रह रहे थे। उन दिनों वे सिंगिल थी, पापा को उन्होंने 'भईया' कहना शुरू किया। धीरे-धीरे सम्बन्ध गाढ़े होते गये और आज भी शांति आन्टी से रिश्ते कायम हैं। इसी अपार्टमेन्ट में एस0डी0 शर्मा से भी सम्बन्ध बने वे कृषि विभाग में थे। उनकी हैन्ड राइटिंग से मैं बहुत प्रभावित था। मैं उनकी हैंड राइटिंग की नकल किया करता था। 1988 में अचलगंज छोड़ने के बाद लगभग 15 वर्ष बाद उनसे अचानक मोहनलालगंज में मुलाकात हुई, जहाँ मैं पी0सी0एस0 प्रोबेशनर के रूप में मोहनलालगंज ब्लाक में बी0डी0ओ0 के पद पर कार्यरत था और श्री शर्मा उसी ब्लोक में ‘सीड स्टोर इंचार्ज’ थे। यह मुलाकात भी अपने आप में बहुत रोचक है, जिसका वर्णन मैं अलग से करूंगा। कुछ मित्रों और शिक्षकों से भी बाद में मुलाकातें हुई जिनमें परमेश्वर, अमित, वीरेन्द्र सिंह, कमल कुमार पाण्डेय के नाम याद आ रहे हैं।
*****PK