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Wednesday, October 20, 2010

यारों के यार.....सागर !


अब जबकि यारों के नाम की महफिल सजी हो तो भला सत्येन्द्र सागर को कैसे भूला जा सकता है.....। सत्येन्द्र सागर जिन्हें मैं प्यार से ‘सागर‘ नाम से सम्बोधित करता हूँ।


सागर से मेरा याराना 12-13 साल पुराना है। सामान्यतः ऐसा होता है कि जब उम्र बढने लगती है तो बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जिनसे दिली-लगाव हो पाता है। नौकरी में आने के बाद तो भावनात्मक किस्म की मित्रता हो पाना तो और भी असंभव होता है......किन्तु इस मिथक को मेरी और सागर की मित्रता ने तोडा है। हमारी मित्रता नौकरी में आने के बाद शुरू हई। 1999 में जब मेरी पहली पोस्टिंग कानपुर एच0बी0टी0आई0 हुई तो सागर की पोस्टिंग तकनीकी शिक्षा निदेशालय में हुई। एक ही सेवा में होने के कारण मेल-जोल स्वाभाविक था। यह मेल-जोल बहुत जल्दी ही परवान चढ गया। एक महत्वपूर्ण समानता तो यह थी कि सागर और हमने एक ही साथ सेण्ट जॉंस कालेज आगरा से ग्रेजुएसन किया था, इसके अलावा और भी कई समानताएँ हमारे बीच थीं......सो मित्रता बहुत जल्दी भ्रातृत्व में परिवर्तित हो गई। सुबह-शाम साथ रहने लगे.....स्थिति यह थी कि वित्त सेवा में हम 'सागर-पवन' की जोडी के रूप में प्रसिद्ध हो गए। सागर की भी नयी-नयी शादी हुई थी, मैं भी जल्दी ही परिणय सूत्र में बंधा था सो अंजू और सागर की धर्मपत्नी श्रीमती भावना के बीच भी ननद-भौजाई वाला ऐसा रिश्ता कायम हो गया। ये रिश्ता तब से आज तक बदस्तूर कायम है।


दरअसल नौकरी में आने के पूर्व से ही मैं सागर से परिचित था, हालांकि मुलाकात नहीं हुई थी। दरअसल 1997 में ग्रेजुएसन के दौरान भारतीय जीवन बीमा निगम में सहायक विकास अधिकारी के लिए जब परीक्षा हुई तो इत्तफाक से हम-दोनों ने क्वालीफाई किया, सागर ने तो ये नौकरी ज्वाइन भी कर ली और वहीं से तैयारी कर पीस0सी0एस0 परीक्षा में सफलता हासिल की और वित्त सेवा में आ गए। सम्प्रति वे अलीगढ में जिला ग्राम्य विकास प्राधिकरण में वरिष्ठ वित्त अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं।


सागर के व्यक्तिगत जीवन के विषय में रोशनी डालना ज़रूरी समझता हूँ .....सत्येन्द्र सागर मूलतः आगरा के निवासी है। दसवीं कक्षा एम0एम0 शैरी से और बारहवीं कक्षा नारायण दास छज्जूमल वैदिक इन्टर कॉलेज से करने के बाद सागर ने सेण्ट जॉस कॉलेज से स्नातक किया। अर्थशास्त्र में रूचि होने के कारण परास्नातक आगरा कॉलेज से अर्थशास्त्र से किया। तीन भाई व एक बहन वाले परिवार में वे सबसे बडे हैं। उनका परिवार पूर्व में संयुक्त परिवार रहा है, सो सागर का खानदान भी ‘सिंह सदन‘ की तरह काफी फैला हुआ है। ‘सिंह-सदन‘ के युवा ब्रिग्रेड के भांति सागर के परिवार में भी युवाओं की बडी संख्या है।


सागर की सबसे अनोखी विशेषता उनका हंसमुख-विनोदी स्वभाव है। हमेशा ‘कूल‘ दिखने वाले सागर को शायद ही कभी गुस्सा आता हो। मैंने अपने जीवन में बहुत कम ऐसे लोग देखे हैं जो इतने जागरूक व अपडेट हों। दुनिया के किसी भी विशय पर उनसे वार्तालाप किया जा सकता है। धर्म- साहित्य- संगीत- कला- राजनीति- अर्थषास्त्र- समाजशास्त्र में जो भी अद्यावधिक होता है, सागर उससे अछूते नहीं रहते। मुझे बौद्धिक बहस-विमर्श करने का जो आनन्द उनके साथ आता है, वह आनन्द मुझे बहुत कम लोगों के साथ आता है। मुझे याद है कि जब मैं सिविल सेवा की परीक्षा दे रहा था तो मैं और सागर दिन-रात एक किये हुए थे.....सागर भी परीक्षा दे रहे थे। हम दोनों के बीच जबरदस्त बौद्धिक विमर्श हुआ करते थे......यह विमर्श परीक्षा में काफी लाभप्रद सिद्ध हुए। मैं उस परीक्षा को उत्तीर्ण कर आई ए एस बना, दुर्भाग्य से सागर उस परीक्षा में सफल नहीं हो सके, लेकिन मेरी इस सफलतामें सागर का योगदान अतुलनीय रहा। सागर ने ‘इन्टरव्यू‘ के दौरान गाजियाबाद में एक सप्ताह रूक कर मुझे मॉक इन्टरव्यू कराने में जो सहयोग किया वह तो अविस्मरणीय है।


सागर के बौद्धिक व्यक्तित्व का तो मैं फैन हूँ ही, उनके विनोदी स्वभाव का मैं उससे भी बडा प्रशंसक हूँ । हरेक बात में ‘हंसी‘ के तत्व खोज लेना और उस पर ठहाका मार कर न केवल स्वयं हंसना बल्कि पूरी महफिल को हंसने पर विवश कर देना, उनके व्यक्तित्व को सहज आकर्षक बनाता है। उम्र को भूलकर बच्चों में बच्चों सी और बुजुर्गो में परिपक्वता की बातें करना सागर की सबसे बडी सहजता है। सागर भले ही दो प्यारे से बच्चों ‘कुणाल-शोभित‘ के पिता हों, किन्तु वे स्वभावतः स्वयं भी बच्चों से कम नहीं। ‘सिंह-सदन‘ के हरेक सदस्य के वे प्यारे हैं.....श्यामू के तो वे पसंदीदा व्यक्ति है। श्यामू की बौद्धिकता और अल्हडपन, सागर के साथ मिलकर दुगुनी हो जाती है।


हमारी दस-बारह साल की मित्रता का ये सफर बहुत भावनात्मक रहा है.......मुझे याद है जब भारत-दर्शन में अंजू को लक्षद्वीप आना था तो सागर ही अंजू को लेकर मेरे पास केरल पहुंचे थे। वैसे भी सागर के साथ मैंने बहुत से ‘विण्टर वैकेसन‘ गुजारे हैं। उनके साथ पर्यटन पर निकलना हमेशा ही मजेदार होता है। लक्षद्वीप, एर्नाकुलम , कौसानी, नैनीताल, गोवा.....इन स्थानों पर सागर के साथ मैंने जो मजा किया है वह मैं कभी भूल नहीं सकता। सागर और मेरी मित्रता की डोर ‘पद-प्रतिष्ठा -अहम‘ आदि से बहुत ऊपर उठी हुई है।


मैं शुक्रगुजार हूँ ईश्वर का जिसने मेरी जिन्दगी में सागर जैसा मित्र दिया जो बहुत सारी खूबियों का मालिक है। ‘सिंह सदन‘ की तरफ से उनका मान सम्मान रखते हुए मैं उनके लिये कहना चाहूँगा .....

वो कौन है क्या है कैसे कोई नजर जाने,
वो अपने आप में छुपने के सब हुनर जाने।

Monday, October 18, 2010

तेरी दोस्ती मेरा प्यार.....संजू !



कुछ लोगों सेसिंह सदनका अत्यन्त भावनात्मक और आत्मीय रिश्ता है। ये वे लोग हैं जिनका जन्म भले हीसिंह सदनमें हुआ हो किन्तु उनका जुडाव इस घर से ऐसा रहा है कि कोई भी आयोजन हो या कोई भी त्यौहार, इनके बिनासिंह सदनअधूरा सा लगता है। इस फेहरिस्त में यूँ तो कई नाम हैं किन्तु इस श्रंखला में आज की शख्सियत है.......संजीव गोयल, जिन्हें हम प्यार से संजू कहकर बुलाते हैं।

अप्रैल 1991........ यही वो महीना था जब संजू से पहली बार मुलाकात हुई। उन दिनों राजा का बाग में शर्मा जी के मकान में हम लोग किराये के मकान में रहते थे........उस मकान में ही संजू का परिवार भी आकर रहने लगा। चूंकि संजू और मैं एक ही स्कूल के छात्र थे, दोनों ही बारहवीं कक्षा में पढते भी थे सो मित्रता होना स्वाभाविक थी.....मित्रता हुई और बड़ी तेजी से मित्रता के इस वृक्ष पर विश्वास-आस्था का अंकुरण-पल्लवन होना प्रारम्भ हो गया।
बाहरवीं के बाद मैं आगरा में सेण्ट जॉस कॉलेज से बी0एस0सी0 करने चला गया, संजू ने भी शिकोहाबाद के नारायण डिग्री कॉलेज में एडमीशन ले लिया। मैं जब भी आगरा से मैनपुरी घर आता तो शिकोहाबाद से संजू को लेते हुये आता और जब आगरा जाता था तो संजू को इधर से साथ लेते हुये जाता..... जब मुलाकातें लगातार हो पाती तो खतो-किताबत चलती रहती। यह खतो-किताबत तब तक चलती रही जब तक कि मोबाइल का दौर शुरू नहीं हुआ.....

बहरहाल पुनः संजू के बारे में कुछ संक्षिप्त सा हवाला देना आवश्यक समझता हूँ संजू के पिता श्री रामेश्वर दयाल विकास खण्ड में सहायक विकास अधिकारी पंचायत के पद से सेवानिवृत्त हुये थे। संजू के पिता का व्यक्तित्व भी अत्यन्त सरल और विनम्र है....सो संजू के व्यक्तित्व में इसकी छाया साफ-साफ देखी जा सकती है। चार भाईयों में तीसरे नंबर पर आने वाले संजू ने 1991 में इण्टर तथा 1995 में स्नातक किया.....तदोपरान्त परास्नातक करने के बाद लेखपाल के पद पर चयनित हुए। लखनऊ जनपद में लेखपाल के पद पर रहते हुये भी बेहतर भविष्य की तैयारी में लगे रहे....इसका फल भी मिला। सम्प्रति वे लोक सेवा आयोग 0प्र0 में समीक्षा अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। संजू की जीवन संगिनी के रूप में पूजा का भी अतुलनीय योगदान रहा है।
संजू के बारे में जब मैं सोचता हूँ तो हैरान होता हूँ इक्कीसवीं सदी में भी यह शख्स इतना सीधा सरल है, कि विश्वास ही नहीं होता है। संजू का जीवन दर्शन इतना सीधा-सरल है कि जरा सा तनाव-उपेक्षा भी संजू को परेशान कर देता है।

मुझे वे दिन याद है जब संजू को नौकरी की तलाश थी और संजू यहॉ-वहॉ नौकरियों की तलाश में परीक्षा देने जाया करते थे। चूंकि मेरी नौकरी 1997 में लग गयी चुकी थी, मैं संजू को तयारी करने को कहता तो ये बातें संजू को समझ में नहीं आती थी। वे तो महज़ एक अध्यापक बनने का स्वप्न पाले हुए थे, इस स्वप्न से बहार पाना उनके लिए बहुत मुश्किल था....मैनपुरी से उनका जुड़ाव उन्हें मैनपुरी से चिपके रहने के लिए प्रेरित करता था। 2006 में मैं जब सहायक निदेशक खेल था तो डॉट-डपट कर मैने संजू को लखनऊ में ही रूककर तैयारी करने को कहा..... यह वह वक्त था जब संजूअनिर्णयकी स्थिति में गए। उन्हें मैनपुरी छोडना बहुतकष्ट कर लग रहा था, बहरहाल मेरे दवाब ने उन्हें मैनपुरी छोडने पर विवश किया। अनिच्छा से ही सही मगर संजू ने लखनऊ में रहना आरम्भ किया...... इसका सुपरिणाम भी देखने को मिला। एक वर्ष के ही अन्दरलेखपालके पद पर चयनित हुए, उसी वर्ष उनका विवाहपूजासे हुआ। अगले वर्ष ही वे समीक्षा अधिकारी के पद पर चयनित हो गए।

बहरहाल संजू की इस सफलता को मैं एक ऐसे इन्सान की सफलता के रूप में देखता हूँ जिसका बचपनसामान्यतरीके से बीता है, युवावस्था एकअध्यापकके सपने के रूप में व्यतीत हुई हो।
मेरे विश्वसनीयों की सूची में संजू का नाम काफी ऊपर आता है। संजू और मेरे संबंध यद्यपि मित्र के रूप में शुरू हुए थे मगर संजू अब एक भाई की तरह ही है..... संजू की उम्र मुझसे कुछ महीने-साल ज्यादा होगी किन्तु मैंने हमेशा से संजू को अपने छोटे भाईयों की तरह ही प्यार-स्नेह दिया है। संजू के हरेक सुख-दुख का मैं भागीदार रहा हूँ ........ मुझे संजू के संघर्षों के वे दिन याद हैं जब संजू सुबह से लेकर देर रात्रि तक ट्यूशन पढाकर अपना जीवन यापन कर रहे थे। भोर से वे बच्चों को गणित-विज्ञान का ट्यूशन देते और रात्रि तक यह क्रम निर्बाध रूप से चलता रहता सिंह सदन के कई बच्चों को उन्होने गणित-विज्ञान पढाया है। यह क्रम लगभग दस-बारह साल चला। यह क्रम तभी समाप्त हुआ जब 2006 में मैंने संजू को लखनऊ बुला लिया।लखनऊ अवस्थान के बाद बहुत तेजी से उनके जीवन में परिवर्तन हुए...... कंप्यूटर सहायक के रूप में प्राइवेट नौकरी के एहसास से होते हुए लेखपाल और उसके बाद शादी- बच्चा और तदोपरांत अब समीक्षा अधिकारी।

संजू में बहुत सी खूबियाँ है......अच्छे आदमी होने के साथ साथ वे अच्छे पुत्र- भाई -मित्र-पति-बाप-इन्सान भी हैं.उनकी आवाज़ इतनी मधुर है की मैं जब भी खली होता तो संजू को बुला कर आधे-एक घंटे गाने सुनता.....! इन खूबियों के बावजूद कुछ इंसानी कमियां भी उनके व्यक्तित्व में हैं...........जैसे संजू कीलापरवाहीउसके व्यक्तित्व की सबसे बडी कमी है। कठोर शारीरिक श्रम कर पाना और परेशानी में बहुत जल्दीहिम्मतखो बैठना उनके व्यक्तित्व के दुर्बल पक्ष हैं किन्तु ये दुर्बल पक्ष उनकी इंसानियत-विश्वासनीयता-सरलता-मधुरता के सामने फीके पड जाते हैं।

लगभग बीस साल की इस मित्रता को जब पीछे मुड के देखता हूँ तो अहसास होता है कि इस दौडती-भागती स्वार्थी दुनिया में कोई ऐसा शख्स है जो इन सबसे ऊपर उठा हुआ है और वो मेरा ही नहीं पूरेसिंह सदनका प्यारा है.......संजू।