मेरी पसंद.....
"वाबस्ता " जब से आई है बार -बार पढने का दिल करता है ! एक से बढ़कर एक शेर हैं ! इधर लगभग आधी किताब ख़त्म कर ली है ... तमाम शेर इस कदर गहरे हैं की पूरी ज़िन्दगी के अनुभव और एहसास छोटे मालूम पड़ते हैं .. उन्हें समझने और महसूस करने में तमाम जिंदगी गुजर सकती है !
"वाबस्ता " से अपनी पसंद के अभी "टॉप टेन" शेर यहाँ पेश कर रहा हूँ ...उम्मीद है आपको वाबस्ता के ये नायाब नगीने पसंद आयेंगे ...
(1)
उतरा है खुदसरी पे वो कच्चा मकान अब ,
लाजिम है बारिशों का मियाँ इम्तिहान अब !
(2)
कुर्बत के इन पलों में यही सोचता हूँ मैं ,
कुछ अनकहा है उसके मिरे दरमियान अब !
(3)
यादों को कैद करने की ऐसी सजा मिली
वो एक पल संभाले है दिल की कमान अब !
(4)
सोचता हूँ की शायद घटें दूरियाँ ,
दरमियाँ फासले कुछ बढ़ाते हुए !
(5)
साया है कम तो फिक्र नहीं क्यूँ की वो शज़र ,
उंचाई की हवस के लिए मुस्तकीम है !
(6)
सिर्फ ज़रा सी जिद की खातिर अपनी जाँ से गुज़र गए ,
एक शिकस्ता कश्ती लेकर हम दरिया में उतर गए !
(7)
मज़हब का जो अलम लिए फिरते हैं आजकल ,
उनकी नज़र में राम न दिल में रहीम है !
(8)
हीरें भी क्यूँ शर्मिन्दा हों नयी कहानी लिखने में ,
जब इस दौर के सब रांझे ही अहदे वफ़ा से मुकर गए !
(9)
उसे बताये बिना उम्र भर रहे उसके ,
किसी ने ऐसे मुहब्बत की पासबानी की !
(10)
जरूरत आदमी को आदमी रहने नहीं देती ,
मगर सब इस हकीकत से हमेशा मुह छुपाते हैं!
****** PANKAJ K. SINGH
3 comments:
bakai bahiya
babasta ka to har sher lajabab hai
tabhi to dhoom machadi hai
bhadahi...
bahut khub..
jhony
प्रिय पंकज,
वाबस्ता के लिए हम सभी बधाई के हकदार हैं. तुमने जो शेर चुने हैं वो यह दिखाता है कि तुम्हें हीरे चुनने की जानकारी है, हुनर है........! बहरहाल इन शेरों को चुनने के लिए शुक्रिया.
PK
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