पुरवा आवत देखि के अकुलावें जे खेत |
जैसे रेगिस्तान में पवन उड़ावे रेत ||पछुआ है मनभावनी मन मीठा कर जाय |
फसलें सब लहला उठें शीतलता पहुंचाय ||
चढ बसंत की बेल पर फूल सभी खिल जाय |
ज्यों त्योहारी मिलन से दिल से दिल मिल जाय ||
ग्रीष्म ऋतु मायूस सी हाथ पैर झुलसाय |
झिलमिल करती धूप में चित्त नहीं टिक पाय ||
रिमझिम बरसे मेघ रस धरती को नहलाय |
स्वाति नक्षत्र की बूंद पी पपीहा प्यास बुझाय ||
धनवानों की शरद ऋतु निर्धन की है ग्रीष्म |
करते सब है प्रतिज्ञा बना न कोई भीष्म ||
ऋतुओं में ऋतुराज है निर्मल ऋतु बसंत |
मानुष मौज मानत है ध्यान लगावत संत ||
पुष्पेन्द्र “पुष्प”
2 comments:
adbhut ,,ati sundar
aashish .. god bless u
रिमझिम बरसे मेघ रस धरती को नहलाय |
स्वाति नक्षत्र की बूंद पी पपीहा प्यास बुझाय ||
मौसमों को लेकर लिखे गए ये दोहे इसलिए काबिले तारीफ़ हैं क्योंकि इनमे मौलिकता है न केवल लेखन की बल्कि सोच की भी. यह नयापन अच्छा संकेत है तुम्हारे लेखन के भविष्य का. तारीफ़ इसलिए नहीं करूंगा कि कहीं तुम बिगड़ न जाओ/////
PK
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