जतन बिन मिरगन खेत उजारो ,
जतन बिन मिरगन खेत उजारो ,
पांच मृग पच्चीस मिरगनी , तामें एक रखवारो !
अपने अपने रस के भोगी , चुग रहे न्यारे न्यारे !
जतन बिन मिरगन खेत उजारो !
टारे तरे मरें नहीं मारें, बिद्रत नहीं बिडारें !
हो हो करत बालि लै भागे ,
मुहं बाये रखबारो !
जतन बिन मिरगन खेत उजारो !
उक्त कविता कबीर दास की है जिसे मैंने अपने स्वयं के जीवन में चरितार्थ महसूस कर रही हूँ ! मैं स्वयं को नयी पीढ़ी के मुल्यरहित और संस्कार रहित होने से निराश महसूस कर रही हूँ ! आश यही है कि शायद कल और बेहतर हो ! मेरे देखते -देखते दुनिया बहुत बदल गयी है ! इस बदली दुनिया ने तरक्की तो बहुत की है पर शांति और सत्संग कहीं नज़र नहीं आता ! अपनी संतानों से यही आशा है की वे मूल्यों ,संस्कारों , शांति और सत्संग की राह पर आगे बढ़ेंगे और अपने जीवन को सही मायनों में सार्थक बनायेंगे !
****** शीला देवी
2 comments:
bahut hi sundar likha bua ji
gyan geet
bakai aj ki yuva sanskaron se bahut dur ho rahe hai
bahut achha likha apne
panam swikaren
MAATE ...
SAADAR CHARAN SPARSH ...
YOU R THE REAL SADGURU OF SINGH SADAN ...
PRANAAM
Post a Comment